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________________ सिढ०३ " कि २५२ MARA M Punamin हदै केहरि सम पूजन निमित्त, सिद्धचक्र मंगल करो। ॐ ह्री नमामिद्धाण श्रासिद्धपरमेष्ठिन् ! १०२४ गुणसहित विराजमान अत्रावतरावतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ २ ठठ, अत्र मम मन्निहितो भव भव वषट् ॥१॥ इति यन्त्र स्थापन। दोहा-सूक्ष्मादि गुण सहित है, कर्म रहित निररोग। . सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिटै उपद्रव योग ॥ अथाष्टक गीताछन्द निज प्रात्मरूप सु तीर्थ मग नित, सरस आनन्द धार हो। नाशे त्रिविधि मल सकल दुखमय, भव जलधिके पार हो । यातै उचित ही है जु तुमपद, नीरसों पूजा करू।। इक सहस अरु चौबीस गुरण गरण भावयुत मनमे धरू॥ ॐ ह्री श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसयुक्ताय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल निर्मपामोति स्वाहा ॥१॥ शीतल सुरूप सुगन्ध चन्दन, एक भव तप नासही। सो भव्य मधुकर प्रिय सु यह, नहिं और ठौर सु बास ही॥ IRIN सप्तमी २५२
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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