SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध वि० २५१ नित " सन्त" सु ध्यावत, पाप नसावत, पावत पद निज श्रविकारं ॥ ह्री दादशाविकपच शतदलोपरिस्थित सिद्ध ेभ्यो नम पूर्णाय । सोरठा -- तुम गुण अमल अपार, अनुभवते भव भय नशै । "सन्त" सदा चित धार, शांति करो भवतप हरो ॥ इत्याशीर्वादः । 17 यहाँ ओ ही असि श्रा उसा नम १०८ बार जपना चाहिये । इति सप्तमी पूजा समाप्त । अथ अष्टमी पूजा १०२४ गुगा सहित (छप्पय छन्द ) - ऊरध अधो सुरेफ सु बिन्दु हकार विराज, अकारादि स्वरलिप्त करिणका अन्त सु छाजै । वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधिधर, अग्र भागमे सन्त्र अनाहत सोहत प्रतिवर ॥ पुनि अन्त हों बेढ्यो परम पद, सुर ध्यावत अरि नागको, ग्रष्टम ज २५१
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy