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________________ वि० सितामे धरै प्रवृत्ति पाप उपजावते, नमू सिद्ध या विन वचगुप्ति उपावते ॥ई ॐ ह्री प्रकृतवचनक्रोधसरम्भवाग्गुप्तये नमः अयं ॥५६॥ क्रोध अग्नि करिनिज उपयोग जरावही,वचनयोगकरिविधिसंरंभ करावही सो तुम त्याग विभाव सुभाव सरूप हो, नम उरानंदधार चिदानंदरूपहोई ॐ ह्री भकारितवचनक्रोधसंरम्भस्वरूपाय नमः अध्यं । । सोरठा-क्रोधित निज वच द्वार, मोदित हो संरंभमें। सो तुम भाव विडार, नम स्वानुभव लब्धियुत ॥६॥ ॐ ह्रो नानुमोदित वचन क्रोधसरम्भस्वानुभवलब्धये नमः अध्यं । ॥ दोहा-क्रोध सहित वाणी नहीं, समारंभ परवृत्त । स्वानुभूति रमरणी रमरण, नमूसिद्ध कृतकृत्य ॥६२॥ ____ॐ ह्री प्रकृतवचनकोघसमारम्भस्वानुभूतिरमणाय नमः अध्यं । समारंभ क्रोधित जिये, प्रेरित पर वच द्वार । नमसिद्ध इस कर्म बिन, धर्मधरा साधार ॥६३॥ -ॐ ह्री अकारित वचनक्रोधसमारभसाधारणधर्माय नमः अध्यं । समारंभ मय वचन करि, हर्षित हो युत क्रोध । nna urannnnnnnnn mmmmmunnn
SR No.010799
Book TitleSiddhachakra Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSantlal Pandit
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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