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________________ ८६६ युगवीर-निबन्धावली ध्रौव्य, उत्पाद और व्ययको एक साथ लक्षित करना सर्वज्ञताके विना नहीं बन सकता, और इसलिये इस ( परम अनुभूत ) वचनसे यह सूचित होता है, कि आप सर्वज्ञ है।' __मूल स्तुति-पद्य और उसके उक्त मूलानुगामी अर्थ तथा आशयसे, जिन्हे भिन्न टाइपोमे दिया गया है, यह स्पष्ट जाना जाता है, कि श्रीरामजी भाई दोशीने जिसे समन्तमद्राचार्यका लेख (लिखना.) प्रकट किया है वह उनका लेख ( कथन अथवा वचन ) नही है। स्वामी समन्तभद्रके उक्त पद्यमें तो कोई क्रियापद भी नही है, जिसका अर्थ "प्रकट हुआ है" किया जा सके, न 'जगत्' आदि शब्दोके साथ षष्ठी विभक्तिका कोई प्रयोग है, जिससे द्वितीय चरणका अर्थ "समयसमयके चर-अचर पदार्थोंका" किया जासके और न उपादान, निमित्त, स्वकाल लब्धि, ज्ञान और केवलज्ञान जैसे शब्दोका ही कही कोई अस्तित्व पाया जाता है । प्रथमचरण भी प्रथमान्त एकवचनात्मक है और इसलिये उसका भी षष्ठो विभक्तिके रूपमे अर्थ नही किया जा सकता। 'प्रतिक्षण' पदका घनिष्ट सम्बन्ध 'स्थिति-जनन-निरोधलक्षणं' पदसे है, न कि 'जगत्' आदि पदोसे, जिनके साथ उसे जोडा गया है, जैसाकि युक्त्यनुशासनके 'प्रतिक्षणं स्थित्युदय-व्ययात्म-तत्त्वव्यवस्थं' इस समन्तभद्र-वाक्यसे भी जाना जाता है। इसके सिवा 'इदं वचन' पदोका कोई अर्थ ही नहीं दिया गया, जो उक्त पद्यकी एक प्रकारसे जान-प्राण है और इस बातको सूचित करते है कि स्वामी समन्तभद्रने यहां मुनिसुव्रतजिनके एक प्रवचनको उद्धृत किया हैं, जो पद्यके प्रथम दो चरणोमे उल्लिखित है। उसी वचनरूप साधनसे उनके सर्वज्ञ होनेका अनुमान किया गया है न कि
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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