SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 875
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८३७ एक अनुभव अमुक-अमुक पदार्थों आदिका ज्ञान आपको केवलज्ञानमे प्रकट हुआ है, इसलिये आप सर्वज्ञ हैं। समन्तभद्र-विषयक उक्त उल्लेखकी ऐसी स्थिति होनेसे यह साफ फलित होता है कि अपने किसी मन्तव्य अथवा उद्देश्यकी सिद्धि-पूर्ति के लिये आचार्य महोदयके वाक्यको तोड़मरोडकर अन्यथा रूपमे उपस्थित किया गया है। इस अन्यथा उपस्थितिका भेद सहजमें खुल न जानेके कारण ही शायद मूल वाक्यको साथमें देना उचित नही समझा गया। श्री रामजीभाई दोशी एडवोकेट जैसे विद्वान्, जो एक समय 'आत्मधर्मका' सम्पादन और श्री कानजी स्वामीके 'प्रवचन' कहे जानेवाले उपदेशोको लेखोमे परिणत करते रहे है, ऐसा मी कर सकते हैं और उन्होने किया है, यही उनके विषयमे मेरा एक नया ताजा अनुभव है। अभी तक मेरा विचार यह चला आरहा था कि श्रीरामजी भाई दोशी अपने लेखोमें जिन आचार्य-वाक्योको अनुवादरूपमे प्रस्तुत करते रहे है, उनके उस अनुवाद-विषयमे वे प्रमाणिक रहे होगे, परन्तु अब मुझे अपना वह विचार बदलनेके लिये बाध्य होना पडता है और यह कहना पडता है कि श्रीरामजीभाई अपने अनुवादोमें सर्वत्र प्रामाणिक रहे मालूम नहीं होते----उन्होने अपने किसी अभिमतकी पुष्टिके लिये उनमें कभी मन-मानी कांट-छाँट अथवा हीनाधिकता ( कमोबेस ) करके उन्हे अन्यथा रूपमे भी प्रस्तुत किया है, जिसके एक उदाहरणको इस लेखमे स्पष्ट करके बतलाया गया है। इससे उनके अनुवादरूपमे प्रस्तुत जिन आगमादि-वाक्योंके साथ मूल वाक्य उद्धृत नही हैं उनके अर्थ तथा आशयके विषयमें धोखा होसकता है—विद्वान भी धोखा खा सकते है, क्योकि किसी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy