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________________ ५५ एक अनुभव : १२ : हाल में मुझे २६ अक्टूबर १६६४ का 'जैनसन्देश' अंक २६ देखने को और उसमे श्रीरामजी भाई माणिकचन्द दोशी एडवोकेट, सोनगढका लेख पढनेको मिला, जिसका शीर्षक है 'प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना।' इस लेख में एक जगह नम्बर ( ५ ) पर लिखा है : "श्री समन्तभद्राचार्य भी अपने स्वयम्भू स्तोत्रमें भगवान् मुनिसुव्रतकी स्तुति करते हुए लिखते है कि समय- समयके चर-अचर पदार्थों का उपादान, निमित्त स्वकाल लब्धि उत्पाद, व्यय और धौव्यका ज्ञान केवलज्ञानमे आपको प्रकट हुआ है; इसलिये आप सर्वज्ञ हो ।" इस वाक्यमें श्री समन्तभद्राचार्यके जिस लेख ( कथन ) का उल्लेख किया गया है, वह उनकी मुनिसुव्रत स्तुतिमे उस प्रकारसे नही पाया जाता । स्तुतिका तद्विपयक पद्य इस प्रकार है स्थिति-जनन-निरोध-लक्षणं चरमचरं च जगत् प्रतिक्षणम् । इति जिन ! सकलज्ञ लांछन वचनमिद वदतांवरस्य ते ॥ ४६|| इस पद्यका स्पष्ट अर्थं तथा आशय इतना ही है कि -- 'हे जिन 1. आप वदतांवर हैं- प्रवक्ताओ में श्रेष्ठ हैंआपका यह वचन कि चर और अचर ( जगम-स्थावर ) जगत् प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोधलक्षणको लिये हुए है — प्रत्येक समयमे श्रीव्य, उत्पाद और व्यय ( विनाश ) स्वरूप हैसर्वज्ञताका चिन्ह है- संसार भरके सभी पदार्थोंमे प्रतिक्षण
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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