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________________ विवेककी ऑख ७८३ 'आजकलके मनुष्य पुण्यका फल जो सुख है उसको तो चाहते हैं, हमेशा यही लगन लगी रहती है कि किसी-न-किसी प्रकार हमको सुखकी प्राप्ति हो जाय, परन्तु सुखका कारण जो पुण्यकर्म अर्थात् धर्म है उसको करना नहीं चाहते, उसके लिये सौ बहाने बना देते हैं। इसी प्रकार पापका फल जो दु ख है उससे बहुत डरते हैं, कदापि अपनेको दुख होने की इच्छा नही करते, दु खके नामसे ही घबरा जाते हैं, परन्तु दु खका मूल कारण जो पाप कर्म है उसको बडे यत्नसे, बडी कोशिशसे और बडी युक्तियोसे करते हैं और चार जने मिलकर करते हैं। फिर कहिये हम कैसे सुखी हो सकते हैं ? कदापि नही। जैसा हम कारण मिलायेंगे उससे वैसाही कार्य उत्पन्न होगा। यदि कोई मनुष्य अपना मुख मीठा करना चाहे और कोई भी मिष्ट पदार्थ न खाकर कडवे-से-कडवे पदार्थका ही सेवन करता रहे तो कदापि उसका मुख मीठा नही होगा। इसी प्रकार जब हम सुखी होना चाहते हैं तो हमको सुखका कारण मिलाना चाहिये अर्थात् धर्मका आचरण करना चाहिये और न्यायमार्ग पर चलना चाहिये तथा साथही अन्याय, अभक्ष्य और दुराचार का त्याग कर देना चाहिये, अन्यथा कदापि सुखकी प्राप्ति नही हो सकती। परन्तु यह सब कुछ तब ही हो सकता है, जब हृदयमे विवेक विद्यमान हो, बिना विवेकके हेयोपादेयके त्याग-ग्रहणकी प्रवृत्ति होना असभव है। और विवेककी प्राप्ति उस वक्त तक नही हो सकती जबतक कि हम अपने धर्मग्रन्थो और नीतिशास्त्रोका अवलोकन और ध्यानपूर्वक मनन नही करेंगे। जबसे हमने अपने धर्मग्रन्योका शरण छोड दिया है तबहीसे हमारी विवेक-ज्योति नष्ट होकर भारतवर्षमे सर्वत्र अज्ञानता और अविवेकता छागई है।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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