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________________ पापका बाप ७७१ वेश्याकी इस टेढी प्रार्थनाके स्वीकार करनेमे उनको अपना धर्म भ्रष्ट होता हुआ भी नजर आया, परन्तु ५००) रुपयेकी थैलीको देखकर उनके मुंहमे पानी भर आया, वे विचारने लगे कि"मुझको यहॉपर कोई देखने वाला तो है नही, जो जातिसे पतित होनेका भय किया जावे, पांच सौ रुपयेकी अच्छी रकम हाथ आती है। इससे बहुतसे काम सिद्ध होगे और जो कुछ थोडा-बहुत पाप लगेगा तो वह हरिद्वारमे जाकर गगाजीमे एक गोता लगानेसे दूर हो सकता है, इसलिये हाथमे आयी इस रकमको कदापि नही छोडना चाहिये" । इस प्रकार निश्चयकर पडितजी वेश्यासे कहने लगे कि-"मुझको तुमसे कुछ उजर तो नही है परतु तुम तो व्यर्थ ही अगुली पकडते पहुंचा पकडती हो। खैर | जैसी तुम्हारी मर्जी ( इच्छा)।" पडितजीके इस प्रकार राजी होनेपर वेश्या ५००) रु० की थैली पडितजीके सुपुर्द कर स्वय रसोई बनाने लगी और पडितजी भोजनकी प्रतीक्षामे बैठ गये। पडितजी बैठे-बैठे अपने मनमे यह खयाल करके बहुत खुश हो रहे हैं कि, "यह वेश्या तो अच्छी मतिकी होनी और गाँठकी पूरी मिल गई, ऐसी तो जम-जम होती रहे ।" थोडी देरमे रसोई तय्यार हो गई और पडितजी भोजनके लिये बुलाये गये। जब पडितजी रसोईमे पहुँचे और उनके आगे अनेक प्रकारके भोजनोका थाल परोसा गया, तब वेश्याने पडितजीसे निवेदन किया कि- "जहाँ आपने मेरी इतनी इच्छा पूर्ण की है वहाँ पर इतनी और कीजिये कि एक ग्रास मेरे हाथसे अपने मुखमे ले लीजिये, और बाकी सब भोजन अपने आप कर लीजिये। बस, मैं इतने ही से कृतार्थ हो जाऊँगी, और यह लो । पाँच सौ रुपयेकी और थैली आपकी नजर है।"
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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