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________________ अभिनन्दनीय प० नाथूरामजी प्रेमी नही तो आपको इतना कष्ट नही दिया जाता। आप हमारे धार्मिक बन्धु है और आपका तथा हमारा दोनोका ध्येय एक है। इसलिये इस तरह शत्रुता उत्पन्न करनेकी कोशिश न कीजिये। 'जैनमित्रसे' मेरा सम्बन्ध है इसलिये आपको यह पत्र लिखना पडा।" इस पत्रका अभिनन्दन किया गया और १५ जनवरीको ही प्रेमपूर्ण शब्दोमे उनके पत्रका उत्तर दे दिया गया। इन दोनो पत्रोके आदान-प्रदानसे ही प्रेमीजीके और मेरे बीच मित्रताका प्रारम्भ हुआ जो उत्तरोत्तर बढती ही गई और जिससे सामाजिक सेवा-कार्योंमे एकको दूसरेका सहयोग बरावर प्राप्त होता रहा और एक दूसरे पर अपने दुख-सुखको भी प्रकट करता रहा है। इसी मित्रताके फलस्वरूप प्रेमीजीके अनुरोधपर मेरा सन् १६२७ और १९२८ मे दो बार वम्बई जाना हुआ और उन्हीके पास महीना दो-दो महीना ठहरना हुआ। प्रेमीजी भी मुझसे मिलनेके लिये दो एक बार सरसावा पधारे । अपनी सख्त बीमारीके अवसर पर प्रेमीजीने जो वसीयतनामा (Will ) लिखा था उसमें मुझे भी अपना ट्रस्टी बनाया था तथा अपने पुत्र हेमचन्द्रकी शिक्षाका भार मेरे सुपुर्द किया था, जिसकी नौबत नही आई। अपने प्रिय पत्र 'जैन हितेपी' का सम्पादनभार भी वे मेरे ऊपर रख चुके हैं, जिसका निर्वाह मुझसे दो वर्ष तक हो सका। उसके बादसे वह पत्र बन्द ही चला जाता है। इनके अलावा उन्होने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' को प्रस्तावना लिख देने का मुझसे अनुरोध किया और मैंने कोई दो वर्षका समय लगाकर रत्नकरण्डकी प्रस्तावना ही नही लिखी, बल्कि उसके कर्ता स्वामी समन्तभद्रका इतिहास भी लिखकर उन्हे दे दिया। यह इतिहास जव प्रेमीजीको समर्पित किया गया और उसके
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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