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________________ ६३६ युगवीर निवन्धावली है; परन्तु जब उनके लेख सुयोग्य सम्पादकोके द्वारा सुधार दिये जाते हैं तब उन्हें अपनी भूलोका ठीक पता चल जाता है, वे भविष्यमे फिर उस प्रकारकी भूलें नही करते और इस तरह सुन्दर लेखनके अभ्यासको बढाकर सुलेखक बन जाते हैं। इस प्रकार सुसम्पादकोके सम्पादनकालमे अनेक सुलेखकोकी सृष्टि हुआ करती है और उन्ही सुलेखकोमेसे फिर कोई-कोई सम्पादक पदकी योग्यताको धारण करनेवाले भी निकल आते हैं। मुझे अपने जीवनमे जहाँ ऐसे कितने ही लेखकोका परिचय प्राप्त है, जिन्हे पहले ठीक लिखना भी नही आता था और जो सुसम्पादकोकी कृपासे अच्छे लेखक बन गये हैं, वहा ऐसे लेखकोका भी कम परिचय नही है, जिन्हे अच्छे सुयोग्य सम्पादकोका सहयोग न मिलनेसे अपने विषयमे कोई खास प्रगति प्राप्त नही हो सकी और इसलिये जिनपर यह कहावत बिल्कुल चरितार्थ होती है-'वही बस चाल बेढगी जो पहले थी सो अब भी है।' साथ ही ऐसे सम्पादकोका भी यथेष्ट परिचय है जो सम्पादनकला तथा सम्पादकीय जिम्मेदारीसे अनभिज्ञ है और सम्पादक बन बैठे हैं। ऐसे सम्पादकोके द्वारा लेखोका सुधार होना तो दूर रहा, कभी-कभी भारी विगाड़ तक हो जाता है। कितने ही सम्पादक काव्य-विज्ञानसे अनजान होते हैं, कविताको छापनेका मोह भी सवरण नही कर सकते और अपने विषयसे सम्बन्ध न रखनेवाली वस्तुका दूसरोसे सम्पादन करा लेनेमे अपनी तौहीन अथवा कोशान समझते हैं और इसलिये जब वे किसी हिन्दी-कवितामे 'छन्दवश प्रयुक्त हुए गती, जाती, पती, साधू , किरिया, विन, मृत्यू जैसे शब्दरूपोको देखते हैं तो उन्हे संस्कृत व्याकरणादिकी दृष्टिसे अशुद्ध समझ लेते हैं और उनके स्थानपर गति, जाति, पति, साधु, क्रिया, बिना और मृत्यु ऐसे रूप बना डालते हैं और
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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