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________________ लेखक जिन्दर पा मादक एतावनात्र परिवर्तनले समझ लेते हैं कि हमने जिताता संशोधन कर दिया ! परन्तु उन्हें यह खबर नहो होतो कि हमने कविताको उल्टा बिगाड़ दिया है-हमारे ऐसा करनेसे उत्तका वजन और अन्द ही भन हो गया है !! अनेक सम्पादक दुसरोके लेखो. विज्ञप्तियो तथा शर्तमय इनामी सूचनालो तकका दो-नार पत्तियोने सिर्फ सार ही दे देते हैं और सारको ऐसे भद्दे उगसे तय्यार करते हैं कि कभी-कभी तो असल का मतलब ही जन्न हो जाता है अथवा कुछका कुछ समझ लिया जाता है। इस पर भी तुर्रा यह कि उस सारके नीचे लेखकादिका नाम रख देते है - यह सूचना करना तक अपना कर्तव्य नही समझते कि अमुक व्यक्तिका अमुक लेखादि हमारे पास आया है जिसका सार इस प्रकार है और इस तरह बिपय-निर्देश एव साहित्यादिकी अपनी जिम्मेदारीको मूल लेखकादिके ऊपर ही थोप देते हैं जो सरासर अन्याय है और जिससे कभी-कभी बड़ा ही अनर्थ सघटित हो जाता है-जनता उस लेखक अथवा उसकी कृतिको ठीक समा ही नही पाती और भ्रममे पड़ जाती है। कोई-कोई सम्पादक ऐसे भी अनुदार होते हैं जो लेखमे किसी व्यक्ति-विशेषके लिये प्रयुक्त हुए आदरके शब्दोको सहन नही कर सकते अथवा उसके परिचायक ब्रह्मचारी आदि टाइटिल तकको निकाल देते हैं और इस तरह अपने पाठकोको भारी असमजसमें पटक देते हैं, वे समझ ही नहीं पाते कि उस नामके कौनसे व्यक्तिको लक्ष्य करके यह बात कही गई है। और कुछ सम्पादक ऐसे भी देखनेमे आते हैं जो अच्छेसे अच्छे जंचे-तुले लेखादिमे भी यो ही दो-चार काट-छाँट किये बिना नहीं रहतेऐसा किये बिना उनका सम्पादकत्व ही चरितार्थ नही होता । ऐसे जीव निस्सन्देह औधी समझके कारण बडे भयकर होते हैं और
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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