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________________ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश पढनेसे विवाह-विपयपर बहुत कुछ प्रकाश पडता है और उसकी अनेक समस्याएं खुद-ब-खुद ( स्वयमेव ) हल हो जाती है । इस उदाहरणसे वे सब लोग बहुत कुछ शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं जो प्रचलित रीति-रिवाजोको ब्रह्म-वाक्य तथा आप्तवचन समझे हुए हैं अथवा जो रूढियोके इतने भक्त हैं कि उन्हे गणित-शास्त्रके नियमोकी तरह अटल सिद्धात समझते हैं और इसलिये उनमे जरा भी फेरफार करना जिन्हे रुचिकर नही होता, जो ऐसा करनेको धर्मके विरुद्ध चलना और जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञाका उल्लघन करना मान बैठे हैं, जिन्हे विवाहमे कुछ सख्या-प्रमाण गोत्रोके न बचाने तथा अपने वर्णसे भिन्न वर्णके साथ शादी करनेसे धर्मके डूब जानेका भय लगा हुआ है, इससे भी अधिक जो एक ही धर्म और एक ही आचार के मानने तथा पालनेवाली अग्रवाल, खण्डेलवाल आदि समान जातियोमे भी परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार एक करनेको अनुचित समझते हैं--पातक अथवा पतनकी शङ्कासे "तथा स्वयवरस्येमे नाभूवन् यद्यकम्पना.। क प्रवर्त्तयिताऽन्योऽम्य मार्गस्यैप सनातन ॥ ४५-५४ ॥ मागांश्चिरतनान्येऽन भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान्सन्त सद्भि पूज्यास्त एव हि ॥ ४५-५५ ॥ इनमेंसे पहले पन्धमें स्वयवर-विधिको 'सनातन मार्ग' लिखनेके साथ-साथ उसे सम्पूर्ण विवाह-विधानोंमें सबसे अधिक श्रेष्ठ (वरिष्ठ) विधान प्रकट किया है और पिछले दोनो पद्योमें, जो भरत चक्रवर्तीकी ओरसे कहे गये पद्य हैं, यह सूचित किया गया है कि युगके आदिमे राजा अकम्पनद्वारा इस विवाह-विधि ( स्वयवर ) का सबसे पहले अनुष्ठान होनेपर भरत चक्रवतीने उसका अभिनन्दन किया था और उन लोगोको सत्पुरुपो-द्वारा पूज्य ठहराया था, जो ऐसे सनातन मार्गाका पुनरुद्धार करें।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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