SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ युगवीर-निवन्धावली जिनका हृदय सन्तप्त है--और जोअपनी एक जातिमे भी आठआठ गोत्रो तकको टालनेके चक्करमे पड़े हुए हैं। ऐसे लोगोको वसुदेवजीका उक्त उदाहरण और उसके साथ विवाहसम्बधी वर्तमान रीति-रिवाजोका मिलान बतलायगा कि रीति-रिवाज कभी एक हालतमे नही रहा करते, वे सर्वज्ञ भगवानकी आज्ञाएँ और अटल सिद्धात नही होते, उनमे समयानुसार बरावर फेरफार और परिवर्तनकी जरूरत हुआ करती है। इसी जरूरतने वसुदेवजीके समय और वर्तमान समयमें जमीन आसमानका-सा अन्तर डाल दिया है। यदि ऐसा न होता तो वसुदेवजीके समयके विवाहसम्बधी नियम-उपनियम इस समय भी स्थिर रहते और उसी उत्तम तथा पूज्य दृष्टिसे देखे जाते, जैसे कि वे उस समय देखे जाते थे। परन्तु ऐसा नहीं है और इसलिए कहना होगा कि वे सर्वज्ञ भगवान्की आज्ञाएँ अथवा अटल सिद्धान्त नही थे और न हो सकते हैं। दूसरे शब्दोमे, यो कहना चाहिये कि यदि वर्तमान वैवाहिक रीतिरिवाजोको सर्वज्ञ-प्रणीत, सार्वदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त-माना जाय तो यह कहना पड़ेगा कि वसुदेवजीने प्रतिकूल आचरणद्वारा बहुत स्पष्टरूपसे सर्वज्ञकी आज्ञाका उल्लघन किया है। ऐसी हालतमे आचार्योद्वारा उनका यशोगान नही होना चाहिये था, वे पातकी समझे जाकर कलङ्कित किये जानेके योग्य थे। परन्तु ऐसा नही हुआ और न होना चाहिये था, क्योकि शास्त्रोद्वारा उस समयके मनुष्योकी प्राय. ऐसी ही प्रवृत्ति पाई जाती है, जिससे वसुदेवजीपर कोई कलङ्क नही आ सकता। तब क्या यह कहना होगा कि उस वक्तके वे रीति-रिवाज सर्वज्ञप्रणीत थे और आजकलके सर्वज्ञप्रणीत अथवा जिनभाषित
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy