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________________ ५४ युगवीर- निबन्धाली वह अंश मौजूद हो जिसमे उस लेखके उदाहरणका नतीजा निकाला गया या उससे निकलनेवाली शिक्षाको प्रदर्शित किया गया है । अतः यहाँ पर उन दोनो अशोका उद्धृत किया जाना बहुत ही जरूरी जान पडता है । पहले लेखमे, वसुदेवजीके विवाहोकी चार घटनाओका --- देवकी, जरा, प्रियंगुसुन्दरी और रोहिणीके साथ होनेवाले विवाहोका उल्लेख करके और यह बतलाकर कि ये चारो प्रकारके विवाह उस समयके अनुकूल होते हुए भी आजकलकी हवाके प्रतिकूल है, जो नतीजा निकाला गया अथवा जिस शिक्षाका उल्लेख किया गया है वह निम्न प्रकार है, और लेखके इस अशमे वे सब खड- वाक्य भी आ जाते हैं जिन्हे समालोचकजीने समालोचनाके पृष्ठ ३६-४० पर उद्धृत किया है " इन चारो घटनाओको लिये हुए वसुदेवजीके एक पुराने वहुमान्य शास्त्रीय उदाहरणसे, और साथ ही वसुदेवजीके उक्त वचनोको' आदिपुराणके उपर्युल्लिखित वाक्योके साथ मिलाकर २ १. वसुदेवजीके वे वचन, जो पुस्तकके पृष्ठ ८ पर उद्धृत हैं और जिनमें स्वयवर विवाहके नियमको सूचित किया गया है, इस प्रकार हैं :कन्या वृणीते रुचितं स्वयवरगता वरं । कुलीनमकुलीन वा क्रमो नास्ति स्वयवरे ॥ ११–७१ ॥ -- निनदासकृत हरिवशपुराण अर्थात् स्वयवरको प्राप्त हुई कन्या उस वरको वरण ( स्वीकार ) करती है जो उसे पसद होता है, चाहे वह वर कुलीन हो या अकुलीन, क्योंकि स्वयवरमे इस प्रकारका — वरके कुलीन या अकुलीन होनेकाकोई नियम नही होता । २. आदिपुराणके वे पृष्ठ ९ पर उद्धृत हुए वाक्य इस प्रकार है" सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिपु भाषित । विवाहविधिभेदेषु वरिष्ठो हि स्वयंवर ॥ ४४-३२ ॥
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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