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________________ ५३० युगवीर-निबन्धावली धर्म लौकिक भी होता है और पारलौकिक अर्थात् परमार्थिक भी। गृहस्थोके लिये दो प्रकारके धर्मका निर्देश मिलता है-एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक, जिसमें लौकिक धर्म लोकाश्रित-लोककी रीति-नीतिके अनुसार प्रवृत्त-और पारलौकिक धर्म आगमाश्रित-आगमशास्त्रकी विधि-व्यवस्थाके अनुरूप प्रवृत्त -~होता है, जैसाकि आचार्य सोमदेवके निम्नवाक्यसे प्रकट है : द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः। लोकाश्रयो भवेदाऽऽद्यः परः स्यादागमाश्रयः ॥ (यशस्तिलक) लौकिकधर्म प्राय ससारमार्ग है और पारलौकिक (पारमार्थिक ) धर्म प्राय: मोक्षमार्ग । धर्म सुखका हेतु है इसमे किसीको विवाद नही (धर्म. सुखस्य हेतु ) चाहे वह मोक्षमार्गके रूपमे हो या संसारमार्गके रूपमे और इसलिये मोक्षमार्गका आशय है मोक्षसुखकी प्राप्तिका उपाय और ससारमार्गका अर्थ है ससारसुखकी प्राप्तिका उपाय । जो पारमार्थिक धर्म मोक्षमार्गके रूपमे स्थित है वह साक्षात् और परम्पराके भेदसे दो भागोमे विभाजित है, साक्षात्मे प्राय. उन परमविशुद्ध भावोका ग्रहण है जो यथाख्यातचारित्रके रूपमे स्थित होते हैं, और परम्पराम सम्यक्दृष्टिके वे सब शुभ तथा शुद्ध भाव लिये जाते हैं जो सामायिक, छेदोपस्थापनादि दूसरे सम्यक्चारित्रोंके रूपमे स्थित होते हैं और जिनमे सद्दान-पूजा-भक्ति तथा व्रतादिके अथवा सरागचारित्रके शुभ-शुद्ध-भाव शामिल हैं। जो धर्म परम्परा-रूपमे मोक्षसुखका मार्ग है वह अपनी मध्यकी स्थितिमे अक्सर ऊँचेसे ऊंचे दर्जेके ससारसुखका हेतु बनता है। इसीसे स्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन-धर्मशास्त्रमे ऐसे समीचीन-धर्मके दो फलोका निर्देश किया है--एक नि श्रेयससुखरूप और दूसरा अभ्युदयसुख-स्वरूप
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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