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________________ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५३१ ( १३० )। नि श्रेयससुखको सर्वप्रकारके दु खोसे रहित, सदा स्थिर रहनेवाले शुद्धसुखके रूपमें उल्लेखित किया है, और अभ्युदयसुखको पूजा, धन तथा आज्ञाके ऐश्वर्य ( स्वामित्व ) से युक्त हुआ वल, परिजन, काम तथा भोगोकी प्रचुरताके साथ लोकमें अतीव उत्कृष्ट और आश्चर्यकारी बतलाया है। और इसलिए वह धर्म ससारके उत्कृप्ट सुखका भी मार्ग है, यह समझना चाहिए। ऐसी स्थितिमे सम्यग्यदृष्टिके शुभ-भावोको मोक्षमार्ग कहना न्याय-प्राप्त है और मोक्षमार्ग अवश्य ही दो भागोमे विभक्त है--एकको निश्चयमोक्षमार्ग और दूसरेको व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं। निश्चयमोक्षमार्ग साध्यरूपमे स्थित है तो व्यवहारमोक्षमार्ग उसके साधनरूपमै स्थित है, जैसा कि रामसेनाचार्य-कृत तत्त्वानुशासनके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है-- मोक्षहेतु. पुनधा निश्चय-व्यवहारतः । तत्राऽऽद्य साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ।।२८।। साध्यकी सिद्धि होनेतक साधनको साध्यसे अलग नही किया जा सकता और न यही कहा जा सकता है कि 'साध्य तो जिनशासन है, किन्तु उसका साधन जिनशासनका कोई अश नही है। सच पूछा जाय तो साधनरूप मार्ग ही जैनतीर्थंकरोका तीर्थ हैधर्म है, और उस मार्गका निर्माण व्यवहारनय करता है। शुभ १ श्री वीरसेनाचार्यने जयधवलामें लिखा है कि 'व्यवहारनय वहुजीवानुग्रहकारी' है और वही आश्रय किये जानेके योग्य है, ऐसा मनमें अवधारण करके ही गोतम गणधरने महाकम्मपयडीपाहुडकी आदिमें मगलाचरण किया है : "जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ सो चेव समस्सिदव्यो ति मणेणावधारिय गोदमथेरेण मंगल तत्थ कद "
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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