SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हीराचन्दजी वोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५२१ सम्यग्ज्ञान तथा सरागसयम धारण करना, दश प्रकारके धर्मोका 'चिन्तवन करना, जिनेन्द्र-पूजन करना, पूजा करनेका उपदेश देना, नि शकितादि आठ गुणोको धारण करना, प्रशस्तरागसे युक्त तपकी भावना रखना, पाँच समितियोका पालना, तीन गुप्तियोका धारण करना, इत्यादि यह सब भी मुनियोका शुद्धोपयोग है।' 'ग्रहण किये हुए व्रतोके धारण और पालनकी इच्छा रखना, एक क्षणके लिए भी व्रतभगको अनिष्टकारक समझना, निरन्तर साधुओकी सगति करना, श्रद्धा-भक्ति आदिके साथ विधिपूर्वक उन्हे आहारादि दान देना, श्रम या थकान दूर करनेके लिए भोगोको भोगकर भी उनके परित्याग करने में अपनी असामर्थ्यकी निन्दा करना, सदा घरबारके त्याग करनेकी वाछा रखना, धर्मश्रवण करनेपर अपने मनमे अति आनन्दित होना, भक्तिसे पचपरमेष्ठियोकी स्तुति-प्रणाम-द्वारा पूजा करना, अन्य लोगोको भी स्वधर्ममे स्थित करना, उनके गुणोको बढाना, और दोषोका उपगृहन करना, सार्मियोपर वात्सल्य रखना, जिनेन्द्रदेवके भक्तोका उपकार करना, जिनेन्द्रशास्त्रोका आदर-सत्कार-पूर्वक पठनपाठन करना, और जिनशासनकी प्रभावना करना, इत्यादि गृहस्थोका शुद्धोपयोग है।' इन सब कथनसे स्पष्ट जाना जाता है कि जिन दान, पूजा, भक्ति, शील, सयम और व्रतादिके भावोको हमने केवल शुभ परिणाम समझ रक्खा है उनके भीतर कितने ही शुद्ध भावोका समावेश रहता है, जिन पर हमारी दृष्टि ही नही है-हमने शुद्ध भावोकी एकान्ततः कुछ विचिन ही कल्पना मनमे करली है यहाँ तो अहिंसादि शुभकर्मोके चित्तमें चिन्तनको भी शुद्धोपयोगमे शामिल किया है।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy