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________________ ५२२ युगवीर-निबन्धावली शंका ३-जिन शुभभावोसे कर्मोका आस्रव होकर बंध होता है, क्या उन्ही शुभभावोसे मुक्ति भी हो सकती है ? क्या एक ही परिणाम जो बधके भी कारण हैं, वे ही मुक्तिका कारण भी हो सकते हैं । यदि ये परिणाम बधके ही कारण है तो इन्हे धर्म ( जो मुक्तिका देनेवाला ) कैसे माना जाय ? समाधान-सम्यग्दृष्टिके वे कौनसे शुभ भाव है जिनसे केवल कर्मोंका आस्रव होकर बन्ध ही होता है, मुझे उनका पता नही । शंकाकारको उन्हे बतलाना चाहिए था। पहली-दूसरी शंकाओके समाधानसे तो यह जाना जाता है कि सम्यग्दृष्टि के पूजा-दान-व्रतादि रूप शुभ माव अधिकाशमे कर्मक्षय अथवा कमोकी निर्जराके कारण हैं और इसलिए मुक्तिमे सहायक हैं । मिश्रभावकी अवस्थामे ऐसा होना सभव है कि एक परिणामके कुछ अश बन्धके कारण हो और शेष अश बन्धके कारण न होकर कर्मोकी निर्जरा अथवा मुक्ति के कारण हो। सराग सम्यक् चारित्रकी अवस्थामे प्रायः ऐसा ही होता है और इसका खुलासा पहली शकाके समाधानमे आगया है। सम्यग्दृष्टिके शुभ परिणाम जब सर्वथा बन्धके कारण नही तब शकाके तृतीय अशके लिए कोई स्थान ही नही रहता। धर्मको ब्रेकटके भीतर जो मुक्ति-- का देने वाला' बतलाया है वैसा एकान्त भी जिनशासनमें नही है। जिनशासनमे धर्म उसे प्रतिपादित किया है जिससे अभ्युदय तथा नि.श्रेयसकी सिद्धि होती है, जैसा कि सोमदेवसूरिके निम्न वाक्यसे प्रकट है जो स्वामी समतभद्रके 'नि.श्रेयसमभ्युदय' इत्यादि वारिकाके वचनको लक्ष्यमे लेकर लिखा गया है : 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ( नीतिवाक्यामृत) शंका ४-उत्कृष्ट द्रव्यलिंगी मुनि शुभोपयोगरूप उच्चतम
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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