SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२० युगवीर-निवन्धावली मुनियो और धावकोके शुद्धोपयोगका क्या स्वरूप होता है, इस विपयमै अपराजितसूरिने भगवती-आराधनाकी गाथा नं० १८३४ की टीकामे कुछ पुरातन पद्योको उद्धृत करते हुए जो प्रकाश डाला है वह भी इस अवसर पर जान लेनेके योग्य है। प० हीरालालजी शास्त्रीने उसे अनेकान्त वर्ष १३, किरण ८ मे 'मुनियो और श्रावकोका शुद्धोपयोग' शीर्षकके साथ प्रकट किया है। यहाँ उसके अनुवाद रूपमें' प्रस्तुत किये गये कुछ अशोको ही उद्धृत किया जाता है :--- 'मैं जीवोको नही मारूंगा, असत्य नही बोलूंगा, चोरी नही करूँगा, भोगोको नही भोगूंगा, धनको नही ग्रहण करूंगा, शरीरको अतिशय कष्ट होने पर भी रातमे नही खाऊँगा, मैं पवित्र जिनदीक्षाको धारण करके क्रोध, मान, माया और लोभके वश बहुदुख देनेवाले आरम्भ-परिग्रहसे अपनेको युक्त नहीं करूंगा । ...इस प्रकार आरभपरिग्रहादिसे विरक्त होकर शुभकर्मके चिन्तनमे अपने चित्तको लगाना सिद्ध अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय, जिनचैत्य, सघ और जिनशासनकी भक्ति करना और इनके गुणोमे अनुरागी होना तथा विषयोसे विरक्त रहना, यह मुनियोका शुद्धोपयोग है।' _ 'विनीतभाव रखना, सयम धारण करना, अप्रमत्तभाव रखना, मृदुता, क्षमा, आर्जव और सन्तोष रखना, आहार भय मैथुन परिग्रह इन चार सज्ञाओको, माया मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योको तथा रस ऋद्धि और सात गौरवोको जीतना, उपसर्ग और परीपहोपर विजय प्राप्त करना, सम्यग्दर्शन, १. मूल वाक्योंके लिये उक्त टीका ग्रथ या अनेकान्तकी उक्त आठवीं ( फरवरी १९५५ की ) किरण देखनी चाहिए।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy