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________________ हीराचन्दजी वोहराफा नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५११ "शुद्धात्मा तक पहुँचनेका मार्ग पासमे न होनेसे लोग 'इतो भ्रष्टास्ततो भ्रष्टा' की दशाको प्राप्त होगे, उन्हे अनाचारका डर नही रहेगा, वे समझेंगे कि जब आत्मा एकान्ततः अबद्धस्पृष्ट है--सर्व प्रकारके कर्मवन्धनोसे रहित शुद्ध-बुद्ध है-और उस पर वस्तुत. किसी भी कर्मका कोई असर नही होता, तव वन्धनसे छूटने तथा मुक्ति प्राप्त करनेका यत्न भी कैसा ?" इत्यादि । ये शब्द कानजीस्वामीके किसी वाक्यके उद्धरणको लिये हए नही है, इतना स्पष्ट है, और इनमें आध्यात्मिक एकान्तताके शिकार मिथ्यादृष्टि लोगोकी जिस समझका उल्लेख है वह कानजीस्वामी तथा उनके अनुयायियोकी प्रवृत्तियोको देखकर फलित होनेवाली है ऐसा उक्त शब्दवाक्योके पूर्वसम्बन्धसे जाना जाता हैन कि एकमात्र कानजीस्वामीके किसी वाक्यविशेपसे अपनी उत्पत्तिको लिये हुए है । ऐसी स्थितिमे उक्त शब्दावलीमे प्रयुक्त "आत्मा एकान्तत अबद्धस्पृष्ट है" इस वाक्यको मेरे द्वारा कानजीस्वामीका कहा हुआ बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त एव सगत नही कहा जा सकता-वह उक्त शब्दविन्यासको ठीक न समझ सकनेके कारण किया गया मिथ्या आरोप है। इसके सिवाय, यदि कोई दूसरा जन कानजीस्वामीके सवधमे अपनी समझको उक्त वाक्यके रूपमें चरितार्थ करे तो वह कोई अद्भुत या अनहोनी बात भी नहीं होगी, जिसके लिये किसीको आश्चर्यचकित होकर यह कहना पडे कि हमारे देखने-सुननेमे तो वैसी बात आई नही, क्योकि कानजी महाराज जव सम्यग्दृष्टिके शुभभावो तथा तज्जन्य पुण्यकर्मोंको मोक्षोपायके रूपमे नही मानते -मोक्षमार्गमे उनका निपेध करते हैं-तब वे आध्यात्मिक एकान्तकी ओर पूरी तौरसे ढले हुए हैं ऐसी कल्पना करने और
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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