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________________ ५१२ युगवीर- निवन्धावली तदनुकूल कहने मे किसीको क्या सकोच हो सकता है ? शुद्ध या निश्चयनयके एकान्तसे आत्मा अबद्धस्पृष्ट है ही । परन्तु वह सर्वथा अबद्धस्पृष्ट नही है, और यह वही कह सकता है जो दूसरे व्यवहारनयको भी साथमे लेकर चलता है— उसके वक्तव्यको मित्रके वक्तव्य की दृष्टिसे देखता है, शत्रुके वक्तव्यकी दृष्टिसे नही, और इसलिये उसका विरोध नही करता । जहाँ कोई एक नय वक्तव्य को ही लेकर दूसरे नयके वक्तव्यका विरोध करने लगता है वही वह एकान्तकी ओर चला जाता और उसमे ढल जाता है | कानजीस्वामी के ऐसे दूसरे भी अनेकानेक वाक्य हैं जो व्यवहारनयके वक्तव्यका विरोध करनेमे तुले हुए हैं, उनमेसे कुछ वाक्य उनके उसी 'जिनशासन' शीर्षक प्रवचन - लेखसे यहां उद्धृत किये जाते हैं, जिसके विषय मे मेरी लेखमाला प्रारम्भ हुई थी : १ " आत्माको कर्मके सम्बन्धयुक्त देखना वह वास्तवमे जैनशासन नही, परन्तु कर्मके सम्बध से रहित शुद्ध देखना वह जैनशासन है ।" २ " आत्माको कर्मके सम्बन्ध वाला और विकारी देखना वह जैनशासन नही है ।" ३ " जैनशासन मे कथित आत्मा जब विकाररहित और कर्मसम्बन्धररित है तब फिर इस स्थूल शरीर के आकार वाला तो वह कहाँसे हो सकता है ?" ४ " वास्तवमे भगवानकी वाणी कैसा आत्मा बतलाने में निमित्त है ? - अबद्धस्पृष्ट एक शुद्ध आत्माको भगवानकी वाणी बतलाती है, ओर जो ऐसे आत्माको समझता है वही जिनवाणीको यथार्थतया समझा ।" ५. “बाह्यमे जड़ शरीरकी त्रियाको आत्मा करता है और
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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