SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युगवीर-निवन्धावली असुहादो विनिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वद-समिदि-गुत्तिरूवं व्यवहारणया दु जिणभणियं ॥४५|| इस गाथामे स्पष्ट रूपसे यह भी बतलाया गया है कि चारित्रका यह स्वरूप व्यवहारनयकी दृष्टिसे जिनेंद्र भगवानने कहा है; जब जिनेन्द्रका कहा हुआ है तब जिनशासनसे उसे अलग कैसे किया जा सकता है ? अतः कानजी स्वामीके ऐसे वचनोको प्रमाणमे उद्धृत करनेसे क्या नतीजा, जो जिनशासनकी दृष्टिसे बाह्य एकान्तके पोषक हैं अथवा अनेकान्ताभासके रूपमे स्थित है और साथ ही कानजीस्वामीपर घटित होनेवाले आरोपोकी कोई सफाई नहीं करते । एक प्रश्न कानजीस्वामीके वाक्योको उद्धृत करनेके अनन्तर श्रीबोहराजीने मुझसे पूछा है कि "आत्मा एकान्तत अबद्धस्पृष्ट है" यह वाक्य कानजीस्वामीके कौनसे प्रवचन या साहित्यमे मैंने देखा है। 'परन्तु यह बतलानेकी कृपा नही की कि मैंने अपने लेखमे किस स्थान पर यह लिखा है कि कानजीस्वामीने उक्त वाक्य कहा है, जिससे मेरे साथ उक्त प्रश्नका सम्बन्ध ठीक घटित होता। मैने वैसा कुछ भी नही लिखा, जो कुछ लिखा है वह लोगोकी आशकाका उल्लेख करते हुए उनकी समझके रूपमे लिखा है, जैसा कि लेखके निम्न शब्दोसे प्रकट है :नहीं सकता। वीतरागचारित्र यदि मोक्षका साक्षात् साधक है तो सरागचारित्र परम्परा साधक है, जैसा कि द्रव्यसग्रहके टीकाकार ब्रह्मदेव के निम्न वाक्यसे भी प्रकट है :-- "स्वशुद्धात्मानुभूतिरूप-शुद्धोपयोगलक्षण वीतरागचारित्रस्य पारम्पर्येण साधक सरागचारित्रम् ।"
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy