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________________ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५०९ नही होगे' उनकी आध्यात्मिक एकान्तताका यदि सूचक समझा जाय तो शायद कुछ भी अनुचित नही होगा । (ख) मोक्षहेतुः पुनर्द्वधा निश्चय व्यवहारतः । तत्राऽऽद्य साध्यरूप स्याद्वितीय स्तस्य साधनम् ||२८|| --तत्त्वानुशासन इसमें श्रीरामसेनाचार्यने यह निर्दिष्ट किया है कि मोक्षमार्ग दो भेदोमे विभक्त है— एक निश्चय- मोक्षमार्ग और दूसरा व्यवहार- मोक्षमागं । निश्चय - मोक्षमार्ग साध्यरूपमें स्थित है और व्यवहार- मोक्षमार्ग उसका साधन है । साधन साध्यका विरोधी नही होता, दोनोमे परस्पर अविनाभाव - सवध रहता है और इसलिये एकको दूसरेसे अलग नही किया जा सकता। ऐसी स्थितिमे निश्चय - मोक्षमार्ग यदि जिनशासनका अग है तो व्यवहारमोक्षमार्ग भी उसीका अग है, और इसलिए जिनशासनका यह लक्षण नही किया जा सकता कि 'जो शुद्धआत्मा वह जिनशासन है' और न यही कहा जा सकता कि 'पूजा- दान व्रतादिके शुभभाव जैनधर्म नही हैं।' ऐसा विधान और प्रतिपादन दृष्टिविकारको लिये हुए एकान्तका द्योतक है, क्योकि व्यवहारमोक्षमार्गमे जिस सम्यक्चारित्रका ग्रहण है वह अशुभसे निवृत्ति और शुभमे प्रवृत्तिको लिये हुए प्राय अहसादितो, ईर्यादिसमितियों और सम्यग्योग निग्रह - लक्षण - गुप्तियोके रूपमें होता है', जैसा कि द्रव्यसग्रहकी निम्न गाथासे जाना जाता है - १. इस सम्यक् चारित्रको 'सारागचारित्र' भी कहते हैं और यह निश्चय मोक्षमार्ग में परिगृहीत 'वीतरागचारित्र' का उसी प्रकार साधन है जिस प्रकार काँटेको कॉटेसे निकाला जाता अथवा विषको विषसे मारा जाता है । सरागचारित्रकी भूमिकामै पहुॅचे विना वीतरागचारित्र तक कोई पहुँच भी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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