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________________ ५०४ युगवीर-निवन्धावली वल्कि एक विषयकी अनुचित वकालत ठहरती है, जिसमे झूठेसच्चे जाली और बनावटी सव साधनोसे काम लिया जाता है। कानजीस्वामीके वाक्य (३) श्री बोहराजीने कानजीस्वामीके कुछ वाक्योको भी (आत्मधर्म वर्ष ७ के ४ थे अकसे ) प्रमाणरूपमे उपस्थित किया है और अपने इस उपस्थितीकरणका यह हेतु दिया है कि इससे मेरी तथा मेरे समान अन्य विद्वानोकी धारणा कानजीस्वामीके सम्वन्धमे ठीक तौरपर हो सकेगी। अत मैंने आपकी प्रेरणाको पाकर आपके द्वारा उद्धृत कानजीस्वामीके वाक्योको कई वार ध्यानसे पढा, परन्तु खेद है कि वे मेरी धारणाको बदलनेमे कुछ भी सहायक नहीं हो सके। प्रत्युत इसके, वे भी प्राय असगत और प्रकृत-विषयके साथ असम्बद्ध जान पडे। इन वाक्योको भी श्रीबोहराजीने डबल इन्वर्टेड कामाज "--" के भीतर रक्खा है और वैसा करके यह सूचित किया तथा विश्वास दिलाया है कि वह कानजीस्वामीके उन वाक्योका पूरा रूप है जो आत्मधर्मके उक्त अकमे पृष्ठ १४१-१४२ पर मुद्रित हुए हैं-उसमे कोई घटा-बढी नही की गई है। परन्तु जांचनेसे यहाँ भी वस्तुस्थिति अन्यथा पाई गई, अर्थात् यह मालूम हुआ कि कानजीस्वामीके वाक्योको भी कुछ काट-छाँट कर रक्खा गया है-कही 'तो' शब्दको निकाला तो कही 'भी', 'ही' तथा 'और' शब्दोको अलग किया, कही शब्दोको आगे-पीछे किया तो कही कुछ शब्दोको बदल दिया, कही डैश (-) को हटाया तो कही उसे बढाया, इस तरह एक पेजके उद्धरणमे १५-१६ जगह काट-छाँटकी कलम लगाई गई। हो सकता है कि काट-छाँटका यह कार्य कानजीस्वामीके साहित्यको कुछ सुधारकर रखनेकी
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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