SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ५०५ दृष्टिसे किया गया हो, जब कि वैसा करनेका लेखकजीको कोई अधिकार नही था, क्योकि उससे उद्धरणकी प्रामाणिकताको बाधा पहुँचती है । कुछ भी हो, इस काट-छाँट के चक्कर मे पड कर उद्धरणका अन्तिम वाक्य सुधारकी जगह उलटा विकारग्रस्त हो गया है, जिसका उद्धृत रूप इस प्रकार है . - " जीवको पाप से छुडा कर मात्र पुण्यमे नही लगा देना है किन्तु पाप और पुण्य इन दोनोसे रहित धर्म-उन सवका स्वरूप जानना चाहिए ।" जब कि कानजीस्वामीके उक्त लेखमे वह निम्न प्रकार से पाया जाता है ·1 " जीवको पावसे छुडा कर मात्र पुण्यमे नही लगा देना है, किन्तु पाप और पुण्य दोनोसे रहित ज्ञायकस्वभाव बतलाना है । इसलिये पुण्य-पाप और उन दोनोसे रहित धर्म, उन सबका स्वरूप जानना चाहिए ।" जानेके कारण बन गया है, इसे इस वाक्यसे रेखाङ्कित शब्दोके निकल वोहराजीके द्वारा उद्धृत वाक्य कितना वेढगा वतलाने की जरूरत नही रहती । अस्तु, अब मैं कानजी स्वामी के वाक्योपर एक नज़र डालता हुआ यह वतलाना चाहता हूँ कि प्रकृत-विषयके साथ वे कहाँ तक संगत हैं और कानजी स्वामीकी ऐसी कौनसी नई एव समीचीन- विचारधाराको उनके द्वारा सामने लाया गया है जो कि विद्वानोकी धारणाको उनके सम्बन्ध में बदलने के लिये समर्थ हो सके । -- अपना प्रकृत - विषय जिनशासन अथवा जैनधर्मके स्वरूपका और उसमे यह देखनेका है कि पूजा - दान व्रतादिके शुभभावोको अथवा सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको वहाँ धर्मरूपसे कोई स्थान
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy