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________________ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ ५०३ प्रति परसे सशोधितकर छपाये गये सस्ती ग्रन्थमाला के सस्करणमें निम्न प्रकार दिया है " जे अश वीतराग भए तिनकरि सवर है अर जे अश सराग रहे तिनकर बध है । सो एक भावते तो दोयकार्य बने परन्तु एक प्रशस्त रागही पुण्यास्रव भी मानना और सवर निर्जरा भी मानना सो भ्रम है । मिश्रभाव विषै भी यह सरागता है, यह वीतरागता है ऐसी पहचानि सम्यग्दृष्टि हीके होय तातै अवशेष सरागताको हेय श्रद्धहै है मिथ्यादृष्टिके ऐसी पहचान नाही त सरागभाव विषै सवरका भ्रम करि प्रशस्तरागरूप कार्यनिकों उपादेय श्रद्धहै है ।" ·1 श्री बोहराजीके उद्धरणकी जब इस उद्धरणसे तुलना की जाती है तो मालूम होता है कि उन्होने अपने उद्धरणमें उन पद- वाक्यों को छोड़ दिया है जिन्हें यहां रेखाङ्कित किया गया है और जो सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टिकी वैसी श्रद्धाके सम्बन्धर्मे हेतु उल्लेखको लिये हुए हैं । उनमें से द्वितीय तथा तृतीय रेखाति वाक्योके स्थान पर क्रमश 'सम्यग्दृष्टि' तथा मिथ्यादृष्टि' पदोका प्रयोग किया गया है और उद्धरणकी पहली पक्ति में 'सवर है' के आगे 'ही' और दूसरी पक्ति में 'बन्ध' के पूर्व 'पुण्य' शब्दको बढाया गया है । और इस तरह दूसरेके वाक्योमे मनमानी काट-छाँट कर उन्हे असली वाक्योंके रूपमे प्रस्तुत किया गया है, जो कि एक बडे ही खेदका विषय है । जो लोग जिज्ञासुकी दृष्टिसे इधर तो अपनी शकाओका समाधान चाहे अथवा वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय करने के इच्छुक बनें और उधर जान-बूझकर प्रमाणोको गलत रूपमे प्रस्तुत करें, यह उनके लिए शोभास्पद नही है । इससे तो यह जिज्ञासा तथा निर्णयबुद्धिकी कोई बात नही रहती,
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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