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________________ ५०२ युगवीर-निबन्धावली जानि महाव्रतादिविप चारित्रका उपचार (व्यवहार) किया है।" "शुभोपयोग भए शुद्धोपयोगका यत्न करे तो (शुद्धोपयोग) होय जाय वहुरि जो शुभोपयोगही को भला जानि ताका साधन किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे होय ।" इन वाक्योमे वीतरागचारित्रके लिए महावतादिके पूर्व अनुष्ठानका और शुद्धोपयोगके लिए शुभोपयोग रूप पूर्वपरिणतिके महत्वको ख्यापित किया गया है। । ऐसी स्थितिमे जिस प्रयोजनको लेकर पं० टोडरमलजीके जिन वाक्योको उद्धृत किया गया है उनसे उसकी सिद्धि नहीं होती। यहाँ पर मैं इतना और प्रकट कर देना चाहता हूँ कि श्री वोहराजीने ५० टोडरमल्लजीके वाक्योको भी डबल इन्वर्टेड कामाज़ "-" के भीतर रक्खा है और वैसा करके यह सूचित किया तथा विश्वास दिलाया है कि वह उनके वाक्योका पूरा रूप है-उसमे कोई पद-वाक्य छोडा या घटाया-बढाया गया नहीं है। परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी मालूम नहीं होती-वाक्योंके उद्धृत करनेमे घटा-बढी की गई है जिसका एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। बोहराजी का वह उद्धरण, जो मिश्र-भावोंके वर्णनसे सवध रखता है, निम्न प्रकार हैं: "जे अंश वीतराग भए तिनकरि सवर ही है- अर जे अश सराग रहे तिनकरि पुण्यबन्ध है-एकप्रशस्त रागहीते पुण्यास्रव भी मानना और सवर निर्जरा भी मानना सो भ्रम है । सम्यग्दृष्टि अवशेप सरागताको हेय श्रद्धहै है, मिथ्यादृष्टि सरागभावविष सवरका भ्रम करि प्रशस्तराग रूप कर्मनिको उपादेय श्रद्धहै है।" इस उद्धरणका रूप प० टोडरमल्लजीकी स्वहस्तलिखित
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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