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________________ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ४९५ समय स्पष्ट मालूम हो गया कि वहाँ धर्मके साथ 'जिन' या कोई दूसरा विशेषण लगा हुआ नही है । साथ ही यह भी पता चला कि मोह-क्षोभसे रहित आत्माके निज परिणामको धर्म बतलाते हुए भावार्थका जो अन्तिम भाग " तथा एकदेश मोहके क्षोभकी हानि होय है ताते शुभ परिणामकूँ भी उपचार से धर्म कहिये है" इस वाक्य से प्रारम्भ होता है उसके पूर्व मे निम्न दो वाक्य छूट गये अथवा छोड़ दिए गये हैं। : "ऐसे धर्मका स्वरूप कह्या है । अर शुभ परिणाम होय तब या धर्मकी प्राप्तिका भी अवसर होय है ।" इस भावार्थमे प० जयचन्दजीने दो दृष्टियोसे धर्मकी बातको रक्खा है - एक कुछ लौकिकजनो तथा अन्यमतियो के कथनकी दृष्टि से और दूसरी जिनमत ( जैनशासन ) की अनेकातदृष्टिसे । अनेकान्तदृष्टिसे धर्म निश्चय और व्यवहार दोनो रूपसे स्थित है । व्यवहारके विना निश्चयधर्मं बन नही सकता, इसी बातको प ० जयचन्दजी ने "अर शुभ परिणाम (भाव) होय तो या धर्मकी प्राप्तिका भी अवसर होय है" इन शब्दोके द्वारा व्यक्त किया है । जब शुभ भाव बिना शुद्धभावरूप निश्चयधर्मकी प्राप्तिका अवसरही प्राप्ति नही हो सकता तब धर्मकी देशनामे शुभभावोको जिनशासन से अलग कैसे किया जा सकता है और कैसे यह कहा जा सकता है कि शुभभाव जैनधर्म या जिनशासनका कोई अग नही, इसे साधारण पाठक भी सहज ही समझ सकते हैं । इसके सिवा पं० जयचन्दजीने उक्त भावार्थ में यह कही भी नही लिखा और न उनके किसी वाक्यसे यह फलित होता है कि "जो जीव पूजादिके शुभरागको धर्म मानते हैं उन्हे 'लौकिक
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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