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________________ ४९६ युगवीर - निबन्धावली जन' और 'अन्यमतो' कहा है ।" लौकिकजन और अन्यमतीके इस लक्षणको यदि कोई भावार्थ के उक्त प्रारम्भिक शब्दो परसे फलित करने लगे तो वह उसकी कोरी नासमझीका ही द्योतक होगा, क्योकि वहाँ 'गोकिकजन' तथा 'अन्यमती' ये दोनो पद प्रथम तो लक्ष्यरूपमें प्रयुक्त नही हुए हैं दूसरे इनके साथ केई ' विशेषण लगा हुआ है जिसके स्थान पर कानजी स्वामीके वाक्यम 'कोई कोई' विशेषणका प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ है कि कुछ थोडे से लोकिकजन तथा अन्यमती ऐसा कहते हैं - सब नही कहते; तव जो नही कहते उनपर वह लक्षण उनके लौकिक जन तथा अन्यमती होते हुए भी कैसे घटित हो सकता है ? नही हो सकता, और इसलिए कानजी स्वामीवा उक्त लक्षण अव्याप्ति दोपसे दूषित ठहरता है और चूँकि उसकी गति उन महान् पुरुषो तक भी पाई जाती है जिन्होने सरागचारित्र तथा शुभभावो को भी जैनधर्म तथा जिनशासनका अग वतलाया है और जो न तो लौकिकजन है और न अन्यमती, इसलिए उक्त लक्षण अतिव्याप्तिके कलकसे भी कलकित है ? साथ ही उसमे 'धर्मके' स्थान पर 'जैनधर्म' का गलत प्रयोग किया गया है । अत उक्त 'भावार्थमे' 'लौकिकजन' तथा 'अन्यमती' शब्दोके प्रयोगमात्रसे यह नही कहा जा सकता कि "जो वाक्य श्रीकानजी स्वामीने लिखे हैं वे इनके नही अपितु श्री प० जयचदजीके हैं ।" श्री बोहराजीने यह अन्यथा वाक्य लिखकर जो कानजी स्वामीकी वकालत करनी चाही है और उन्हें गुरुतर आरोप से मुक्त करनेकी चेष्टा की है यह वकालतकी अति है और उन जैसे विचारकोको शोभा नही देती । ऐसी स्थितिमें उक्त वाक्यके अनन्तर मेरे ऊपर जो निम्न शब्दोकी कृपावृष्टि की गई है उनका आभार किन शब्दोमे व्यक्त करू यह मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता - विज्ञ
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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