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________________ युगवीर-निवन्धावली समाधान करते हुए कही कुछ विचलित न हो जाऊँ; इस कृपाके लिए मैं श्री वोहराजीका आभारी हूँ। उनकी शकाओका समाधान आगे चल कर किया जायगा, यहाँ पहले उनके प्रमाणो पर एक दृष्टि डाल लेना और यह मालूम करना उचित जान पडता है कि वे कहाँ तक उनके अभिमत विषयके समर्थक होकर प्रमाण कोटिमे ग्रहण किये जा सकते हैं । प्रमाण और उनकी जॉच (१) श्रीकुन्दकुन्दके भावपाहुडकी ८३वी गायाके प० जयचन्दजीकृत 'भावार्थ' को डबल इनवर्टेडकामाज" " के भीतर इस ढगसे उद्धृत किया गया है जिससे यह मालूम होता है कि वह उक्त गाथाका पूरा भावार्थ है - उसमे कोई घटा-बढी नही हुई अथवा नही की गई है । परन्तु जांचसे वस्तु-स्थिति कुछ दूसरी ही जान पडी । उद्धृत भावार्थका प्रारम्भ निम्न शब्दो मे होता है : ४९४ "लौकिकजन तथा अन्यमती केई कहे हैं जो पूजा आदिक शुभ क्रिया तिनिविषै अर व्रतक्रियासहित है सो जिनधर्म है सो ऐसा नाही है । जिनमतमे जिनभगवान ऐसा कह्या है जो पूजादिक विषै अर व्रतसहित होय सो तो पुण्य है ।" इस अश पर दृष्टि डालते ही मुझे यहाँ धर्मका 'जिन' विशेषण अन्यमतीका कथन होनेसे कुछ खटका तथा असगत जान पडा, और इसलिये मैंने इस टीकाप्रन्थकी प्राचीन प्रतिको देखना चाहा । खोज करते समय दैवयोगसे देहलीके नये मन्दिरमे एक अति सुन्दर प्राचीन प्रति मिल गई जो टीकाके निर्माणसे सवा -दो वर्ष बाद (स० १८६६ पौष वदी २ को ) लिखकर समाप्त हुई है । इस टीका - प्रतिसे बोहरा जीके उद्धरणका मिलान करते
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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