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________________ हीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शकाएँ ४९३ यह मौन कुछ अच्छा मालूम नही देता-उससे भविष्यमे हानि होनेकी भारी सभावना है। भविष्यमे यदि वैसा कोई चौथा सम्प्रदाय स्थापित होनेको हो तो स्वामीजीके शिष्य-प्रशिष्य कह सकते हैं कि यदि स्वामीजीको यह सम्प्रदाय इष्ट न होता तो वे पहले ही इसका विरोध करते जब उन्हे इसकी कुछ सूचना मिली थी, परन्तु वे उस समय मौन रहे हैं अतः 'मौन सम्पति-लक्षण' की नीतिके अनुसार वे इस चौथे सम्प्रदायकी स्थापनासे सहमत थे, ऐसा समझना चाहिये । साथ ही किसी विपयमे परस्पर मतभेद होने पर उन्हे यह भी कहनेका अवसर मिल सकेगा कि स्वामीजी कुन्दकुन्दादि आचार्योंका गुणगान करते हुए भी उन्हे वस्तुत. जैनधर्मी नही मानते थे—'लौकिक जन' तथा 'अन्यमती' समझते थे, इसीसे जब उन महान आचार्योको वैसा कहनेका आरोप लगाया गया था तो वे मौन हो रहे थे-उन्होने उसका कोई विरोध नहीं किया था। __ ऐसी वर्तमान और सम्भाव्य वस्तु-स्थितिमे मेरे समूचे लेखकी दृष्टिको ध्यानमे रखते हुए यद्यपि श्रीबोहराजीके लिये प्रस्तुत लेख लिखने अथवा उसको छापनेका आग्रह करनेके लिए कोई माकूल वजह नही थी, फिर भी उन्होंने उसको लिखकर जल्दी अनेकान्तमे छापनेका जो आग्रह किया है वह एक प्रकारसे 'मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त' की नीतिको चरितार्थ करता है। __ लेखके शुरूमे कुछ शकाओको उठाकर मुझसे उनका समाधान चाहा गया है और फिर सबूतके रूपमे कतिपय प्रमाणोकोअप्टपाहुडके टीकाकार पं० जयचन्दजी और मोक्षमार्गके रचयिता प० टोडरमलजीके वाक्योको साथ ही कुछ कानजी स्वामीके वाक्योको भी उपस्थित किया गया है, जिससे मैं शकाओका
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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