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________________ अर्थ-समर्थन ४५ है और न इस प्रकार छिपानेसे असलियत छिपा करती है । मूल श्लोकमे साफ तौरपर 'आर्यनिवासात्' पद आया है, जिसका स्पष्ट अर्थ है 'आर्यदेशसे' और 'प्रच्युत्य' शब्दका अर्थ है 'च्युत होकर ' दोनोका अर्थ हुआ 'आर्यदेशसे च्युत होकर' अर्थात् 'आर्यदेशको छोडकर | यह अर्थ नही होता कि 'आर्यखंडके मध्यस्थलको छोड़कर ।' यदि पडितजी यह कहे कि हम आर्यखंडके मध्य स्थल ही को आर्यदेश समझते हैं और इसीलिये हमने 'आर्यदेशके' स्थानमे 'आर्यखंडका मध्यस्थल' यह पद प्रयुक्त किया है । तब पडितजीको खुद ही यह मानना पडेगा कि मध्यस्थलके सिवाय जो इतर स्थल ( किनारा वगैरह ) है वह आर्यदेश नही है, बल्कि अनार्य वा म्लेच्छदेश है और प्राय उसी देशके निवासियोमे जैनधर्म पचम कालमे रहेगा । परन्तु पडितजी चाहे कुछ मानें या न मानें, आचार्य महोदयने मूल श्लोकमे 'स्याद्धर्मः प्रत्यन्तवासिषु' यह पद देकर इस बातको बिलकुल साफ कर दिया है कि म्लेच्छ देश के निवासियोमे जैनधर्मं रहेगा अर्थात् पचम कालमे मलेच्छ देशोके निवासी जैनधर्मको धारण करेगे । 'प्रत्यन्त' शब्दका अर्थ है म्लेच्छ्देश । इस अर्थकी यथार्थता जानने के लिये कही दूर जानेकी जरूरत नही हे, पाठकगण अमरकोश उठाकर ही देख सकते हैं । उसके द्वितीय काण्डके सप्तम श्लोकमे साफ लिखा है .11 "प्रत्यन्तो म्लेच्छ्देश. स्यात् अर्थात् 'प्रत्यन्त' म्लेच्छदेशको कहते है या यो कहिये कि 'प्रत्यन्त' और 'म्लेच्छदेश' दोनो एकार्थवाची हैं। इसके सिवाय शब्दकल्पद्रुम और श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित अभिधानचितामणिमे भी ऐसा ही लिखा है । यथा 'प्रत्यन्त: म्लेच्छदेश:' 37 ( शब्दकल्पद्रुम )
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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