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________________ ४४ युगवीर-निवन्धावली जायगा कि आर्यखंडमे भी म्लेच्छदेश होते हैं और उन्ही म्लेच्छदेशोके सम्बन्धमे लिखनेका अभिप्राय था। अब विवादस्थ श्लोकके अर्थविषयको लीजिये, पडितजी ने स्पष्ट अर्थको छिपाते हुए बडे सकोचके साथ, अपने लेखमे इस श्लोकके उत्तरार्धका अर्थात्--- "प्रच्युत्यायनिवासात्स्याद्धर्मः प्रत्यन्तवासिपु।" इस वाक्यका जो अर्थ दिया है वह इस प्रकार है :-- "पचम कालमे जैनधर्म आर्यखडके मध्यस्थलको छोडकर अन्त किनारेपर थोडे क्षेत्रमे रहेगा।" पडितजीके इस अर्थसे यह मालूम नही होता कि आपने 'आर्यखडके मध्यस्थल' यह अर्थ कौनसे शब्दोका ग्रहण किया है ? और इस मध्यस्थलकी व्याप्ति किन देशो तक है ? इसी प्रकार यह भी मालूम नही होता कि 'अन्त किनारेपर थोड़े क्षेत्रमे ऐसा अर्थ कौनसे शब्दोका किया गया है ? और किन-किन देशोका इस थोडे क्षेत्रमे अन्तर्भाव है ? अथवा 'किनारे' शब्द से पडितजीने आर्यखडके अन्तिम जल-भागको ग्रहण किया है या स्थल-भागको ? यदि पडितजी मूल श्लोकके शब्दोका ठीक अर्थ न लिखकर भी अपने अर्थमे इन अन्य समस्त बातोका भी स्पष्टीकरण कर देते, तब भी पाठकोको आपका आशय मालूम पड़ जाता, परन्तु पडितजीने दूसरेके अर्थका खडन करनेके लिये लेखनी उठाकर भी ऐसा नहीं किया। इससे मालूम होता है कि पडितजीने जानबूझकर असलियतको छिपानेकी चेष्टा की है और यह सूचित करना चाहा है कि 'आर्यखडके समस्त देश आर्य ही होते हैं, और इसलिये जब जैनधर्म पचम कालमे आर्यखडके मध्यस्थलको 'छोड देगा तब किनारेके आर्यदेशोमे ही रहेगा--परन्तु ऐसा नहीं
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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