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________________ कानजी स्वामी और जिनशासन ४७१ वक्तव्यका विरोधी है, वचनानयके दोषसे दूषित है और जिनशासनके साथ उसकी सगति ठीक नही बैठती। क्या शुभ भाव जैनधर्म नहीं ? श्री कानजीस्वामीने अपने प्रवचन-लेखमे आचार्य कुन्दकुन्दके भावप्राभृतकी गाथाको उद्धृत करके यह बतलानेकी चेष्टा की है कि जिनशासनमे पूजादिक तथा व्रतोके अनुष्ठानको 'धर्म' नही कहा है, किन्तु 'पुण्य' कहा है। धर्म दूसरी चीज है और वह मोह-क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम हैं - पूयादिसु वयसहियं पुण्णं हि जियहिं सासणे भणिय । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥८॥ इस गाथामें पूजा-दान-व्रतादिकके धर्मरूप होनेका कोई निषेध नही, 'पुण्ण' पदके द्वारा उन्हे पुण्य-प्रसाधक धर्मके रूपमें उल्लेखित किया गया है। धर्म दो प्रकारका होता है-एक वह जो शुभ-भावोके द्वारा पुण्यका प्रसाधक है और दूसरा वह जो शुद्ध-भावोके द्वारा अच्छे या बुरे किसी भी प्रकारके कर्मास्रवका कारण नहीं होता। प्रस्तुत गाथामे दोनो प्रकारके धर्मोका उल्लेख है। यदि श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकी दृष्टिमे पूजा-दान-व्रतादिक धर्म-कार्य न होते तो वे रयणसारकी निम्न गाथामे दान तथा पूजाको श्रावकोका मुख्य धर्म और ध्यान तथा अध्ययनको मुनियोका मुख्य धर्म न बतलाते - दाणं पूजामुक्खं सावयधम्मो ण सावगो तेण विणा । झाणज्झयणं मुक्खं जइधम्मो तं विणा सोवि ॥११॥ और न चारित्रप्राभृतकी निम्नगाथामे अहिंसादिवतोके अनुष्ठानरूप सयमाचरणको श्रावकधर्म तथा मुनिधर्मका नाम ही देते. एवं साववधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं । सुद्ध संजमचरणं जइधम्मं णिकलं वोच्छे ॥२६॥
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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