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________________ ४७२ युगवीर निवन्धावली उन्होने तो चारित्रप्राभतके अन्तमे सम्यक्त्व-सहित इन दोनो धर्मोका फल अपुनर्भव ( मुक्त-सिद्ध ) होना लिखा है । तब वे दान-पूजा-व्रतादिकको धर्मकी कोटिसे अलग कैसे रख सकते हैं ? यह सहज ही समझा जा सकता है । स्वामी समन्तभद्रने अपने समीचीन-धर्मशास्त्र ( रत्नकरण्डश्रावकाचार ) मे सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदु' इस वाक्यके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्रको वह समीचीनधर्म बतला कर जिसे धर्मके ईश्वर तीर्थंकरादिकने निर्दिष्ट किया है उस धर्मकी व्याख्या करते हुए सम्यकचारित्रके वर्णनमे 'वैयावृत्त्य' को शिक्षावतोमें अन्तर्भूत धर्मका एक अग बतलाया है, जिसमे दान तथा सयमियोकी अन्य सब सेवा और देव-पूजा ये तीनो शामिल हैं, जैसा कि उक्त ग्रन्थके निम्न वाक्योसे प्रकट है - दानं वैयावृत्त्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियसगृहाय विभवेन ॥११॥ व्यापत्तिव्यपनोदः पयोः संवाहनं च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥११२॥ देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिहरणम् । कामदुहि कासदाहिलि परिचिनुयादाहतो नित्यम् ॥ ११३ ॥ साथ ही यह भी बतलाया है कि धर्म नि श्रेयस तथा अभ्युदय दोनो प्रकारके फलोको फलता है, जिसमे अभ्युदय पुण्यप्रसाधक अथवा पुण्यरूप धर्मका फल होता है और वह पूजा, धन तथा आज्ञाके ऐश्वर्यको वल, परिजन और काम-भोगोकी समृद्धि एव अतिशयको लिये रहता है, जैसा कि तत्स्वरूप-निर्देशक निम्न पद्यसे जाना जम्ता है ---
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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