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________________ ४७० युगवीर-निवन्धावली रागादिक वे रागादिक है जो एकान्त-धर्माभिनिवेशमूलक होते हैं--एकान्तरूपसे निश्चय किये हुए वस्तुके किसी भी धर्ममे अभिनिवेशरूप जो मिथ्याश्रद्धान है वह उनका मूल कारण होता है--और मोही-मिथ्यादृष्टि जीवोंके मिथ्यात्वके उदयमे जो अहकार-ममकारके परिणाम होते हैं उनसे वे उत्पन्न होते है। ऐसे रागादिक जिन्हे अमृतचन्द्राचार्यने उक्त गाथाओकी टीकामे मिथ्यात्वके कारण 'अज्ञानमय' लिखा है, वे जहाँ जीवादिकके सम्यक् परिज्ञानमे बाधक होते हैं वहाँ समतामे--वीतरागतामै-- भी बाधक होते हैं इसोसे उन्हें निपिद्ध ठहराया गया है। प्रत्युत इसके, जो रागादिक एकान्त धर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभावमे चरित्रमोहके उदयवश होते हैं वे' उक्त गाथाओमें विवक्षित नही हैं। वे ज्ञानमय तथा स्वाभाविक होनेसे न तो जीवादिकके परिज्ञानमे बाधक हैं और न समता-वीतरागताकी साधनामे ही बाधक होते हैं। सम्यकदष्टि जीव विवेकके कारण उन्हे कर्मोदयजन्य रोगके समान समझता है और उनको दूर करनेकी बराबर इच्छा रखता एवं चेष्टा करता है। इससे 'जिनशासनमे उन रागादिके निषेधकी ऐसी कोई खास बात नही जैसी कि मिथ्यादर्शनके उदयमे होनेवाले रागादिककी है। सरागचारित्रके धारक श्रावको तथा मुनियोमे ऐसेही रागका सद्भाव विवक्षित है--जो रागादिक दृष्टिविकारके शिकार हैं वे विवक्षित नही हैं। इस सब विवेचनसे स्पष्ट है कि न तो एकमात्र वीतरागता ही जैनधर्म है और न जैनशासनमे रागका सर्वथा निषेध ही निर्दिष्ट है । अत कानजीस्वामीका 'वीतरागता ही जैनधर्म हैं' इत्यादि कथन केवल निश्चयावलम्बी एकान्त है, व्यवहारनयके
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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