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________________ कानजी स्वामी और जिनशासन ४४३ द्वारा प्राप्त हुआ था जिसपर स्थानके साथ पत्र लिखनेकी तारीख तो है, परन्तु बाहर भीतर कही भी पत्र भेजनेवाले सज्जनका कोई नाम उपलब्ध नही होता । सभवत वे सज्जन बावू नानकचन्दजी एडवोकेट जान पडते हैं, जो कि समयसारके स्वाध्यायके प्रेमी हैं और उस प्रेमी होनेके नाते ही पत्रमे कुछ लिखनेके प्रयासका उल्लेख भी किया गया है । इस पत्र में आठवी शका विषयमे जो कुछ लिखा है उसे उपयोगी समझकर यहाँ उद्धृत किया जाता है ' गाथा न ० १५ के पहले चरणमें जो क्रम -भग है वह बहुत ही रहस्यमय है । यदि गाथा न०१५ मे गाथा न० १४ का पूर्वार्ध दे दिया जाता तो दो विशेषण 'अविशेष' और 'असंयुक्त' छूट जाते । ये विशेषण किसी दूसरे विशेषणके उपलक्षण नही हो सकते । क्रमभग करने पर दो विशेषण 'नियत' और 'असयुक्त' छूटे हैं सो इनमें से 'नियत' विशेषण तो 'अनन्य' का उपलक्षण है । जो वस्तु अनन्य होती है वह 'नियत' अवश्य होती हैं, इस कारण अनन्य कह देनेसे नियतपना आ ही गया । इसी तरह 'अविशेष' कहनेसे असयुक्तपना आ ही गया । सयोग विशेषोमे ही । हो सकता है सामान्यमें नही - सामान्य तो दो द्रव्योका सदा ही जुदा जुदा रहता है । सयुक्तप्ना किसी द्रव्यके एक विशेषका दूसरे द्रव्यके विशेषसे एकत्व हो जाना है । श्रीकुन्दकुन्दने क्रमभग करके अपनी (निर्माण) कलाका प्रदर्शन किया है और गाथा न० १५ मे भी शुद्धनयके पूर्णस्वरूपको सुरक्षित रक्खा है । अविशेष और असयुक्तका इस प्रकारका सम्बन्ध अन्य तीन विशेषणोसे नही है जिस प्रकारका नियतका अनन्यसे असयुक्तका अविशेपसे है ।' (सामान्य)
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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