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________________ ४४२ युगवीर-निबन्धावली इसके 'अनादिमध्यान्त' अर्थकी कल्पना करते थे जो कि एक क्लिष्ट कल्पना थी । अब इसके प्रस्तावित रूपसे अर्थ बहुत ही स्पष्ट तथा सरल ( सहज बोधगम्य ) हो गया है । साथ ही यह भी बतलाया कि श्रीजयसेनजीने इस पदका जो अर्थ किया है और उसके द्वारा इसे 'जिणसासणं' पदका विशेषण बनाया है वह ठीक तथा सगत नही है । गाथाके अर्थ में अतिरिक्त विशेषण प्रस्तुत गाथाका अर्थ करते हुए उसमे आत्माके लिये पूर्व गाथा - प्रयुक्त 'नियत' और 'असयुक्त' विशेषणोको उपलक्षणसे ग्रहण किया जाता है, जो कि इस गाथामे प्रयुक्त नही हुए हैं । इन्ही अप्रयुक्त एव अतिरिक्त विशेषणोके ग्रहणसे शका न०८ का सम्बन्ध है और उसमें यह जिज्ञासा प्रकट की गई है कि इन विशेषणोका ग्रहण क्या मूलकारके आशयानुसार है ? यदि है तो फिर १४वी गाथामे प्रयुक्त हुए पाँच विशेषणोको इस गाथामे क्रमभग करके क्यों रखा गया है जब कि १४वी गाथाके पूर्वार्धको ज्योका त्यो रख देनेपर भी काम चल सकता था अर्थात् शेप दो विशेषणो 'अविशेष' और 'असंयुक्त' को उपलक्षण द्वारा ग्रहण किया जा सकता था? और यदि नही है, तो फिर अर्थ में इनका ग्रहण करना ही अयुक्त है । इस शकाको भी स्वामीजीने अपने प्रवचनमे छुआ तक नही हैं, और इसलिए इसके विपयमे भी वही बात कही जा सकती हैं, जो पिछली तीन शकाओके विषयमे कही गई है - अर्थात् इस शकाके विषय मे भी उन्हे कुछ कहने के लिए नही होगा और इसीसे कुछ नही कहा गया । यहाँ पर एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि कुछ अर्सा हुआ मुझे एक पत्र रोहतक ( पूर्व पजाब ) से डाक
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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