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________________ कानजी स्वामी और जिनशासन ४४१ 'दे', शेप सब ज्यो का त्यो है। लेखकोकी कृपासे 'वे' का 'दे' लिखा जाना अथवा पन्नोके चिपक जाने आदिके कारण 'वे' का कुछ अश उडकर उसका 'दे' बन जाना तथा पढा जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है। इस ससूचित पदका अर्थ 'अनादिमध्यान्त' होता है और यह विशेपण शुद्धात्माके लिए अनेक स्थानोपर प्रयुक्त हुआ है, जिसके कुछ उदाहरण शकामे नोट किये गये हैं और फिर पूछा गया है कि यदि पदका यह सुझाव ठीक नही है तो क्यो ? ऐसी स्थितिमे प्रचलित-पद और तद्विपयक यह सुझाव विचारणीय जरूर हो जाता है। इस तरह तीन शकाएँ प्रचलितपदके रूपादि-विषयसे सम्बन्ध रखती है, जिन्हे प्रवचनलेखमे विचारके लिये छुआ तक भी नही गया-समाधानकी तो वात ही दूर है-यह उस लेखको पढकर पाठक स्वय जान सकते हैं। हो सकता है कि स्वामीजीके पास इन शकाओके समाधान-विषयमे कुछ कहनेको न हो और इसीसे उन्होने अपने उस वाक्य ( "जो कुछ कहना होता है उसे प्रवचनमे ही कह देता हूँ") के अनुसार कुछ न कहा हो। कुछ भी हो, पर इससे समयसारके अध्ययनकी गहराईको ठेस जरूर पहुँचती है। यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि गत वर्ष ( सन् १६५२ मे ) सागरमे वर्णीजयन्तीके अवसर पर और इस वर्ष खास इन्दौरमें यात्राके अवसर पर मेरी इस पदके रूपादि-विपयमे प० वशीघरजी न्यायालकारसे भी, जो कि जैनसिद्धान्तके एक बहुत बडे ज्ञाता है, चर्चा आयी थी, उन्होने उक्त सुझावको ठीक बतलाते हुए कहा कि हम पहलेसे इस पदको 'अप्पाणं' पदका विशेषण मानते आये हैं, और तब इसके 'अपदेससुत्तमज्झं' (अप्रदेशसूत्रमध्य) रूपको लेकर एक दूसरे ही ढगत
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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