SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गलती और गलतफहमी ३९१ ( वनस्पति-द्रव्यो )को भक्ष्य समझकर मुनि लोग भिक्षामें ग्रहण करते हैं। __मूलाचारके इस सम्पूर्ण कथनपरसे यह बिल्कुल स्पष्ट है और अनशनीय कन्द-मूलोका 'अनग्निपक्व' विशेषण इस बातको साफ बतला रहा है कि जैन मुनि कच्चे कन्दमूल नही खाते, परन्तु अग्निमे पकाकर शाक-भाजी आदिके रूप में प्रस्तुत किये कन्द-मूल वे जरूर खा सकते हैं। दूसरी गाथामे प्रासुक (अचित्त) किये हुए पदार्थोंको भी भोजनमे ग्रहण कर लेनेका उनके लिये विधान किया गया है। यद्यपि अग्निपक्व भी प्रासुक होते हैं, परन्तु प्रासुककी सीमा उससे कही अधिक बढी हुई है। उसमे सुखाए, तपाए, खटाई-नमक मिलाए और यन्त्रादिकसे छिन्नभिन्न किये हुए सचित्त वनस्पति-पदार्थ भी शामिल होते हैं, जैसा कि ऊपर दी हुई 'सुर्क पक्कं तत्तं' इत्यादि प्राचीन गाथासे प्रकट है। इस तरह जब बस-स्थावर दोनो प्रकारकी हिंसाके पूर्ण त्यागी महाव्रती मुनि भी अग्नि-पक्व अथवा अन्य प्रकारसे प्रासुक आलू आदि कन्द-मूल खा सकते हैं तब अणुव्रती गृहस्थ श्रावक', जो स्थावरकायकी ( जिसमें सब वनस्पतिभित है ) हिंसाके तो त्यागी ही नहीं होते और त्रसकाय-जीवोकी हिंसा भी प्राय सकल्पी ही छोडते हैं, कन्दमूलादिकके सर्वथा त्यागी कैसे हो सकते हैं ? इसे विचारशील पाठकोको स्वय समझ लेना चाहिये और इसलिये भोगोपभोग-परिमाण-व्रतके कथनमे जहाँ अल्पफल १. दसवीं प्रतिमा तकके श्रावक गृहस्थ श्रावक कहलाते हैं । ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकोंके लिये 'गृहतो मुनिवनमित्वा' इत्यादि वाक्यों द्वारा घर छोडनेके विधान हैं।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy