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________________ ३९२ युगवीर-निबन्धावली बहुविघातकी दृष्टिसे सामान्य शब्दोमे ऐसे कन्द-मूलोके त्यागका परामर्श दिया गया है, जो अनन्तकाय हैं, वहाँ भी अनग्निपक्व कच्चे तथा अप्रासुक कन्द-मूलोके त्यागका ही परामर्श है-अग्निपक्व तथा अन्य प्रकारसे प्रासुक एव अचित्त हुए कन्दमूलोंके त्यागका नही, ऐसा समझना चाहिये । आगमकी दृष्टि और नय-विवक्षाको साथमे न लेकर यो ही शब्दार्थ कर डालना भूल तथा गलतीसे खाली नही है। अग्निमे पके अथवा अन्य प्रकारसे प्रासुक हुए कन्द-मूल अनन्तकाय ( अनन्त जीवोंके आवास ) तो क्या, सचित्त--एक जीवसे युक्त-भी नहीं रहते। फिर उनके सेवन-सम्बन्धमे हिंसा, पाप, दोप तथा अभक्ष्य-भक्षण जैसी कल्पनाएँ कर डालना कहाँ तक न्यायसगत है ? इसे विवेकी जन स्वय समझ सकते हैं। ___जैन-समाजमे कन्दमूलादिका त्याग बडा ही विलक्षण रूप धारण किये हुए है। हल्दी, सोठ तथा दवाई आदिके रूपमे सूखे कन्दमूल तो प्राय सभी गृहस्थ खाते है। परन्तु अधिकाश श्रावक अग्निपक्व तथा अन्य प्रकारसे प्रासुक होते हुए भी गीले, हरे, कन्द-मूल नही खाते। ऐसे लोगोका त्याग शास्त्रविहित मुनियोके त्यागसे भी बढा चढा है ।। बहुतसे श्रावक सिद्धान्त तथा नीति पर ठीक दृष्टि न रखते हुए स्वेच्छासे त्याग-ग्रहणका मार्ग अगीकार करते हैं अर्थात् कितने ही लोग मूली तो खाते है, परन्तु उसका सजातीय पदार्थ शलजम नही खाते, अदरक और शकरकन्द तो खाते हैं, परन्तु आलू और गाजर नही खाते । अथवा आलूको तो 'शाकराज' कहकर खाते हैं, परन्तु दूसरे कितने ही कन्द-मूल नही खाते। और अधिकाश श्रावक कन्द-मूलको अनन्तकाय समझकर ही उनका त्याग करते हैं, परन्तु अनन्त
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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