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________________ २५ ३८५ गोत्रकर्मपर शास्त्रीजी उत्तर-लेख उक्त अन्तिम पक्ति ( वाक्य ) लिखनेकी कोई आवश्यकता ही नही थी, क्योकि वह पक्ति उक्त सिद्धान्त--सभी म्लेच्छ खडोंके म्लेच्छ सकलसयम धारण कर सकते हैं के विरुद्ध जाती है।" इस पर मैंने एक नोट दिया था और उसमे यह सुझाया था कि-'यदि शास्त्रीजीको उक्त पदसे ऐसी दो जातियोका ग्रहण अभीष्ट है, तव चूँकि आर्यखडको आए हुए उन साक्षात् म्लेच्छोकी जो जाति होती है वही जाति म्लेच्छखडोके उन दूसरे म्लेच्छोकी भी है जो आर्यखडको नही आते हैं, इसलिये साक्षात् म्लेच्छ जातिके मनुष्योके सकलसयम-ग्रहणकी पात्रता होनेसे म्लेच्छखडोमे अवशिष्ट रहे दूसरे म्लेच्छ भी सकलसयमके पात्र ठहरते हैंकालान्तरमे वे भी अपने भाई-बन्दो ( सजातीयो ) के साथ आर्यखडको आकर दीक्षा ग्रहण कर सकते हैं। और इस तरह सकलसयमग्रहणकी पात्रता एव सभावनाके कारण म्लेच्छखडोके सभी म्लेच्छोके उच्चगोत्री होनेसे वाबू सूरजभानजीका वह फलितार्थ अनायास ही सिद्ध हो जाता है, जिसके विरोधमे इतना अधिक द्राविडी प्राणायाम किया गया है।' म्लेच्छखडोम अवशिष्ट रहे म्लेच्छोकी कोई तीसरी जाति शास्त्रीजी बतला नहीं सकते थे, इसलिये उन्हे मेरे उक्त नोटकी महत्ताको समझनेमे देर नही लगी और वे ताड गये कि इस तरह तो सचमुच हमने खुद ही अपने हाथो अपने सिद्धान्तकी हत्या कर डाली है और अजानमे ही बाबू साहबके सिद्धान्तकी पुष्टि कर दी है ।। अब करें तो क्या करें ? बाबू साहवकी बातको मान लेना अथवा चुप बैठ रहना भी इष्ट नही समझा गया, और इसलिये शास्त्रीजी प्रस्तुत उत्तरलेखमे अपनी उस बातसे ही फिर गये हैं ।। अब वे 'तथाजातीयकानाम्' पदमे एक ही जातिके
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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