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________________ ३८४ युगवीर-निवन्धावली चक्रवर्तीकी सेनाके साथ आकर अपनी बेटी भी आर्यखण्डके किसी मनुष्यके साथ विवाह देते-वेटी विवाह देनेकी शर्त खास तौरपर लाजिमी रक्खी जाती ।। अथवा ऐसा कर दिया जाता तो और भी अच्छा होता कि उन वेटियोसे पैदा होनेवाली सन्तान ही सकलसयमकी अधिकारिणी है-दूसरा कोई भी म्लेच्छखडज मनुष्य उसका पात्र अथवा अधिकारी नही है ।। ऐसी स्थितिमे ही शायद उन आचार्योंकी सिद्धान्तविषयक समझ-बूझका कुछ परिचय मिलता । परन्तु यह सब कुछ अव वन नही सकता, इसीसे स्पष्ट शब्दोके अर्थकी भी खीचतान द्वारा शास्त्रीजी उसे बनाना चाहते हैं । शास्त्रीजीने अपने पूर्वलेखमे 'तथाजातीयकानां दीक्षाहत्वे प्रतिपेधाभावात्' इस वाक्यकी, जो कि जयधवला और लब्धिसारटीका दोनोमे पाया जाता है और उनके प्रमाणोका अन्तिम वाक्य है, चर्चा करते हुए यह बतलाया था कि इस वाक्यमे प्रयुक्त हुए 'तथाजातीयकानां' पदके द्वारा म्लेच्छोकी दो जातियोका उल्लेख किया गया है-एक तो उन साक्षात् म्लेच्छोकी जातिका जो म्लेच्छखडोसे चक्रवर्ती आदिके साथ आर्यखडको आ जाते हैं तथा अपनी कन्याएं भी चक्रवर्ती आदिको विवाह देते हैं और दूसरे उन परम्परा-म्लेच्छोकी जातिका जो उक्त म्लेच्छ कन्याओसे आर्यपुरुषोके सयोग-द्वारा उत्पन्न होते हैं। इन्ही दो जातिवाले म्लेच्छोके दीक्षाग्रहणका निषेध नही है। साथ ही लिखा था कि-"इस वाक्यसे यह निष्कर्ष निकलता है कि अन्य म्लेच्छोके दीक्षाका निषेध है। यदि टीकाकारको लेखकमहोदय ( बा० सूरजभानजी) का सिद्धान्त अभीष्ट होता तो उन्हे दो प्रकारके म्लेच्छोके सयमका विधान बतलाकर उसकी पुष्टिके लिये
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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