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________________ २९९ एक विलक्षण आरोप हुए वे नोट आठकी जगह पाँच-नही, नही पॉच महापापदीखने लगे ! और उसीके अनुसार आपने उनकी संख्या पाँच लिख मारी ।। लिखते समय इस बातकी सावधानी रखनेकी आपने कोई जरूरत ही नही समझी कि उनकी एक बार गणना तो कर ली जाय कि वे पाँच ही है या कमती-बढती ! सो ठीक है क्रोधके आवेशमे प्राय पापकी ही सूझती है और प्रमत्तदशा होनेसे स्मृति अपना ठीक काम नहीं करती, इसीसे वैरिष्टर साहवको पापोकी ही संख्याका स्मरण रहा जान पडता है। खेद है अपनी ऐसी सावधान लेखनीके भरोसेपर ही आप अँचे-तुले नोटोके सम्बन्धमे कुछ कहनेका साहस करने वैठे है ।। एक जगह तो वैरिष्टर साहवका कोपावेश धमकीकी हद तक पहुँच गया है । आपका एक लेख 'अनेकान्त' में नही छापा गया था, जिसका कुछ परिचय पाठकोको आगे चलकर कराया जायगा, उसका उल्लेख करनेके वाद यह घोपणा करते हुए कि "सपादकजी सव ही थोडे-बहुत नौकरशाहीकी भॉतिके होते हैं," आप लिखते हैं "मुझे याद है कि एक मरतवा व० शीतलप्रसादजीने भी, जब वह ऐडीटर 'वीर' के थे, और मैं सभापति परिपदका था, मेरे एक लेखको अर्यात् सभापति महाशयकी आज्ञाको टाल दिया था, यह कह कर कि म० गांधीके सिद्धान्तके विरोवमे है । मगर ७० जी तो अपने गेरुआ कपडो और उच्च चारित्रकी वदौलत सभापतिजीके गजवसे वच गये, मगर वाबू जुगलकिशोरजीके तो वस्त्र भी गेरुआ नही हैं ?" ( तब वह कैसे वच सकेंगे?' ) १. प्रश्नाक १ से पहले यह पाठ छूट गया जान पड़ता है। यदि प्रश्नाक ही गलत हो तब भी आपके लिखनेका नतीजा वही निकलता है जो त्रैकटम दिया गया है।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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