SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० युगवीर-निबन्धावली इससे वैरिष्टर साहबकी स्पष्ट धमकी पाई जाती है और वे साफ तौरपर सम्पादकको यह कहना चाहते हैं कि वह उनके गजवसे-~-क्रोधसे-~नही बच सकेगा। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि आपके क्रोधका एक कारण आपका लेख न छापना भी है । परन्तु बैरिष्टर साहब यह लिखते हुए इस बातको भूल गये कि जुगलकिशोरके वस्त्र भले ही गेरुआ न हो परन्तु वह स्वतन्त्र है--किसीके आश्रित नही, अपनी इच्छासे नि.स्वार्थ सेवा करने वाला है। और साथ ही, यह भी आपको स्मरण नही रहा कि जिस सस्थाका 'अनेकान्त' पत्र है उसके आप इस समय कोई सभापति भी नही है जो उस नातेसे अपनी किसी आज्ञाको बलात् मनवा सकते अथवा आज्ञोल्लघनके अपराधमे सम्पादक पर कोई गजब ढा सकते। सच है क्रोधके आवेशमे बुद्धि ठिकाने नही रहती और हेयोपादेयका विचार सब नष्ट हो जाता है, वही हालत बैरिष्टर साहबकी हुई जान पड़ती है। खारवेलके शिलालेखमे आए हए मूर्तिके उल्लेख आदिको लेकर बा० छोटेलालजीके लेखमे यह बात कही गई थी कि"तब एक हद तक इसमे सदेह नहीं रहता कि मूर्तियो-द्वारा मूर्तिमानकी उपासना-पूजाका आविष्कार करनेवाले जैनी ही है।" जिसपर सम्पादकने यह नोट दिया था कि--"यह विषय अभी बहुत कुछ विवादग्रस्त है और इसलिये इसपर अधिक स्पष्टरूपमे लिखे जानेकी जरूरत है।" और इसके द्वारा लेखक तथा उस विचारके दूसरे विद्वानोको यह प्रेरणा की गई थी कि वे भविष्यमे किसी स्वतन्त्र लेख-द्वारा इस विषयपर अधिक प्रकाश डालनेकी कृपा करे। इस प्रेरणामे कौन-सी आपत्तिकी बात है ? लेखककी इसमे कौन-सी तौहीन की गई है अथवा MG
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy