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________________ उपासना-विपयक समाधान २८१ परिभापाके अनुसार 'अधर्म' तथा 'अप्रमाण' कहना होगा और नही तो वे श्रावको-द्वारा परिकल्पित उत्तम क्रियाओको भी अधर्म तथा अप्रमाण नहीं कह सकेंगे। सभव है शास्त्रीजी यहाँपर यह कहनेका साहस करे कि गणधरादिक 'आचार्य' जिन विशेष-क्रियाओका उपदेश देते हैं वे वेशक सर्वज्ञके-द्वारा उपदिष्ट नही होती परन्तु उनका बीज सर्वज्ञके उपदेशमें सन्निहित होता है, जिसे वे आचार्य महोदय देश-कालकी परिस्थिति तथा शिप्योकी आवश्यकतादिके अनुसार पल्लवित करके बतलाते हैं, उनका वह उपदेश सर्वज्ञकी आज्ञाके प्रतिकूल न होनेसे उनके अनुकुल कहा जाता है और इसलिये उसे अप्रमाण नही कह सकते। इसपर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि उसे पल्लवित करनेमे अथवा पर्यायरूपसे एक क्रियाको नवीन जन्म देनेमे आचार्योंकी इच्छा, शक्ति, रुचि, विचारपरिणति, देशकालकी परिस्थिति और शिष्योकी आवश्यकता आदि दूसरी चीजे शामिल होती है या कि नही ? यदि नही होती तव तो पल्लवित होना ही असभव है क्योकि बाहरसे दूसरी चीजके शामिल हुए विना वीज अकुरित भी नही होता । और यदि शामिल होती है और उस शमूलियत ( सम्मेलन ) पर भी कोई क्रिया महज इस वजहसे अप्रमाण नही कही जा सकती कि वह सर्वज्ञकी आज्ञाके प्रतिकूल अथवा विरुद्ध नही है तो फिर श्रावकोके-द्वारा उनकी सद्भावना, हितचिन्ता, भक्ति, रुचि, शक्ति और आवश्यकता आदिके सम्मेलनसे उपासनाकी जो क्रियाए कल्पित की जाय और वे सर्वज्ञकी आज्ञाके विरुद्ध न हो उनपर शास्त्रीजी किस तरहपर आपत्ति करनेके लिये समर्थ हो सकते हैं ? और कैसे उन्हे अधर्म कह सकते या उनपर अप्रमाणका फतवा लगा सकते है ? अत
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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