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________________ २८२ युगवीर-निबन्धावली श्रावको-द्वारा परिकल्पित हुई उन क्रियाओमे शात्रीजीकी उक्त शका व्यर्थ है। खेद है शास्त्रीजीके किसी भी कथनकी सगति ठीक नही बैठती और उनका भी सारा लेख बडजात्याजीकी तरह अशिक्षितोका-सा प्रलाप जान पड़ता है। इस तरहपर, इस कथनसे यह विलकुल स्पष्ट है कि 'विमोक्षसुख' वाले ३७वे पद्यके साथ ३८वे पद्यका पेश करना कोई जरूरी अथवा लाजिमी नहीं था । और जव ३८वे पद्यका पेश करना ही जरूरी नही था तब ३९वे पद्यका पेश करना तो और भी ज्यादा गैरजरूरी तथा अनावश्यक हो जाता है, क्योकि वह प्राय ३८वे पद्यमे जो कथाचित् उपदेशवाली बात कही गई है उसपर की जानेवाली शकाको लेकर लिखा गया है, जैसा कि उसके प्रस्तावना-वाक्यसे भी जाहिर है। और इसलिये इन पदोको साथम पेग न करनेसे शास्त्रीजी तथा बडजात्याजोका लेखककी नीयत आदिपर आक्षेप करना ऐसा ही है जैसा 'उल्टा चोर कोतवालको डाटे' समझका तो खोट अपना--आप इनके आशय, अभिप्राय अथवा कथनकी नय-विवक्षाको समझे नही-और इलजाम लगाने वैठ गये दूसरेपर कि उसने इनको छिपा लिया। कितना विलक्षण न्याय है। आशा है शास्त्रीजी और बडजात्याजी दोनो इस लेखपरसे अपनी भूले मालूम करेगे, अपने भ्रमको सुधारेगे और भविष्यमे इस तरहपर विना सोचे समझे जो जीमे आया लिख देनेका साहस नही करेगे। हर एक बातको उन्हे धैर्यके साथ सोचना और गहरे अध्ययनके साथ विचारना चाहिये-~~-यो ही अपने सस्कारोके विरुद्ध कोई बात देख-सुनकर एकदम क्षुब्ध या कुपित हो जाना नहीं चाहिये। सस्कार तो खराव हो ही रहे हैं, उन्हीकी वजहसे
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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