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________________ २८० युगवीर-निबन्धावली सकते तो फिर जिन विशिष्ट क्रियाओका भगवानने उपदेश नही दिया और जो खास तौरपर गणधरादिक मुनियोंके द्वारा ही उपदिष्ट हुई हो उन्हें क्या आप अप्रमाण तथा अधर्म क्रिया कहना चाहते हैं ? शायद इसपर शास्त्रीजी यह कहे कि गणधरादिक मुनि तो उन्ही क्रियाओका उपदेश देते हैं जो भगवानके द्वारा उपदिष्ट होती हैं-उनके उपदेशमे भगवानके उपदेशसे कोई विशिष्टता अथवा विभिन्नता नही होती और इसलिये पूजनादि विपयकी ऐसी कोई क्रिया ही नही जो भगवानके-द्वारा उपदिष्ट न हुई हो। तब तो 'या' की जगह 'और' शब्दका प्रयोग होना चाहिये था अथवा मुनियोके उपदेशको पृथकपसे उल्लेख करना ही व्यर्थ था। परन्तु उनके उपदेशका यह पृथकपसे उल्लेख और साथमे 'वा' शब्दका प्रयोग ये दोनो वाते मूलमे भी पाई जाती हैं और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि गणधरादिक मुनियोके द्वारा भी कुछ क्रियाएँ भिन्नरूपसे उपदिष्ट हुई है, इसीसे उनके विषयका पृथक्प से उल्लेख करनेकी जरूरत पैदा हुई। और यह विलकुल सत्यार्थ है। यदि ऐसा न होता तो श्रावकोके मूलगुण तथा उत्तरगुण आदिके कथनोमे आचार्योका परस्पर मत भेद न होता। परन्तु मतभेद अवश्य है जिसको लेखकने 'जैनाचार्योका शासनमेद' नामकी अपनी लेखमालामे अच्छी तरहसे प्रदर्शित किया है। और इसलिये यह सिद्ध है कि गणधरादिक आचार्योंके द्वारा कुछ क्रियाए ऐसी भी उपदिष्ट हुई है जिनका सर्वज्ञने कोई खास उपदेश नहीं दिया। तब तो उन क्रियाओको, सर्वज्ञके-द्वारा उपदिष्ट न होनेसे शास्त्रीजीको अपनी १. देखो जैनहितैपी' की १४ वीं जिल्द अक न० १, २-३, ७-८९। यह लेखमाला 'जैनाचार्योंका शासनभेद' नामसे पृथक् छप चुकी है।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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