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________________ उपासना-विषयक समाधान ૨૭૩ सूझ नही पड़ा कि सर्वज्ञकी स्पष्ट आज्ञाके विना भी कोई क्रिया धर्मका अग हो सकती है और उसमे प्रमाणता भी आ सकती है। वे दान-पूजादि सबधी अपनी सम्पूर्ण क्रियाओपर सर्वज्ञकी आज्ञा लादने, सर्वज्ञकी छाप लगाने, उन्हे सर्वज्ञके बचनानुसार बतलाने अथवा मर्वज्ञके माथे मढनेके लिये बुरी तरहसे लालायित जान पड़ते हैं, और इसीलिये उन्होने विना वजह पात्रकेसरीस्तोत्रके ३८ वे पद्यका उसके लिये उपयोग किया है, जिसे दुरुपयोग कहना चाहिये। आपकी समझके अनुसार उक्त ३८ वे पद्यकी सृष्टि इस शकाको लेकर की गई है कि सर्वज्ञने जव उन पूजनादि विषयक क्रियाओका उपदेश नही दिया किन्तु श्रावकोने स्वय उनका अनुष्ठान किया है तो वे क्रियाए सर्वज्ञकी आज्ञानुकूल न होनेपर किस प्रकार धर्मका अग हो सकेगी और उनमें किस प्रकारसे प्रमाणता आ सकेगी ? परन्तु इस शकाका ३७ वे पद्यमे कोई उल्लेख नही है, जिसमे शास्त्रीजीके मतानुसार पूर्वपक्षका पद्य होनेसे होना चाहिये था, और न ३८ वे पद्यके प्रस्तावना-वाक्यमे ही उसका उल्लेख मिलता है। जैसा कि ऊपर अवतरण न० ३ से जाहिर है। और इसलिये उक्त शकाको शास्त्रीजीकी निजी कल्पना समझना चाहिये । परन्तु इसे भी छोडिये, और मूल पद्य न० ३८ को ही लीजिये जो ऊपर उद्धृत किया जा चुका है और जिसका भावानुवाद इस प्रकार है - १ प्रस्तावना-वाक्यमें तो सिर्फ इतना लिखा है कि-'कथचित् निस्यागम (अनादिनिधन श्रुत) से भव्य जीवोंने उन क्रियाओंका अनुभव किया है, इस वातको दिखलानेके लिये अगला पद्य (न० ३८ ) कहा जा सकता है।
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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