SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ युगवीर निवन्धावली हे जिनदेव । आपने या आपके उपदेशको व्याख्या करके प्रवर्ता बननेवाले किसी पुरुप-विशेष ( गणधरादिक ) ने चैत्य-क्रिया. दान-क्रिया, अनशनविधि और केशलोचका कथचित् उपदेश दिया है अथवा अनादिनिधन श्रुतज्ञान प्रमाणसे ( भव्य जीवोने ) इन सब बातोका अनुभव किया है।' ____इस पद्यको पूर्ववर्ती पद्य न० ३७ की रोशनीमे पढनेसे मालूम होता है कि पूर्ववर्ती पधमे जो यह प्रतिपादन किया गया है कि श्रावकोने उन क्रियाओका स्वय अनुष्ठान किया है उसीके सम्बधमे एक दूसरी बात यह बतलानेके लिये कि उन क्रियाओके अनुष्ठानका अनुभव उन लोगोको सर्वथा स्वत ही नही किन्तु परत भी हुआ है-उसमे कचित् दूसरोकी सहायता भी मिली है.----इस पद्यकी सृष्टि की गई है, जैसा कि इसके सक्षिप्त प्रस्तावना-वाक्यसे भी ध्वनित है और इसमें उस सहायताको तीन भागोमे विभाजित किया है .-१ कथचित् तीर्थकर भगवानके उपदेशसे, २ कथचित् गणधरादिक आचार्योके उपदेशसे, और ३ कथचित् अनादिनिधन श्रुतके अध्ययनसे । साथ ही, 'वा' तथा 'अथवा' शब्दोके प्रयोग-द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रत्येक क्रियाके अनुभवमें सबको इन तीनोकी सहायता मिलनेका कोई नियम नहीं है, और न ऐसा ही कोई नियम है कि इनमेसे प्रत्येकके द्वारा तत्तद्विपयक सम्पूर्ण क्रियाओका उपदेश होता है, वल्कि यह कथन विकल्परूपसे है और इसलिये ऐसा समझना चाहिये कि किसीको किसी क्रियाके अनुष्ठान-विषयक अनुभवमे किसीकी और किसीको किसीकी सहायता मिलती है अथवा उसके मिलनेका सभव है। और इसलिये इससे यह साफ नतीजा निकलता है कि भगवान सर्वज्ञने चैत्य-चैत्यालयोके निर्माण तथा
SR No.010793
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1967
Total Pages881
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy